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ऑफ़िस-तंत्र-6 / कुमार अनुपम

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लौटने के लिए वह घर लौटता है
और साथ में एक ऑफ़िस लाता है

दरवाज़ा खोलने में हुई ज़रा-सी देरी के लिए
फटकारता है पत्नी को
माँगता है पूरे दिवस की कार्य-रिपोर्ट
सहमी हुई वह
गिनाती है रोज़मर्रा गृहस्थी के काम जिसमें जूझती रही सगरदिन
वह एक मामूली गृहस्थी के मामूली कामों को
उसकी साधारणता समेत खारिज करता है और
कुछ असाधारण काम-धाम करने
की आदेशनुमा सलाह में लपेट
उसकी गृहस्थी की मामूली फाइल
हिकारत के हाथों सौंप देता है

बच्चे
दरवाज़े और करुणा की ओट से
कुछ चाकलेट कुछ टॉफ़ियों की नाउम्मीदी में
किसी सपने में लौट जाते हैं
या सोने में व्यस्त दिखने
के अभिनय में मशगूल हो जाते हैं मन मार
उन्हें पता है शायद
कि ऑफ़िस में चाकलेट और टाफियाँ नहीं मिलतीं
जो दुहराता है अकसर उनका पिता

वह अधिकारी-आवेश में
झिंझोड़कर जगाता है बच्चों को अधनींद
और धमकाता है कि तुम सबकी मटरगश्तियाँ
और लापरवाहियाँ
अब और बरदाश्त के नाकाबिल
कि अधिक मन लगाओ
कि तुम पर, सोचो ज़रा,
कितना इन्वेस्ट किया जा रहा है लगातार
तुम पर हमारे कई प्लान डिपेंड हैं
और कई योजनाएँ तो तुम्हारे ही कारण स्थगित
तुम्हीं हो हमारी उम्मीद की मल्टीनेशनल लौ
जिसकी जगरमगर में हमारा भी भविष्य देदीप्यमान

बच्चे फिर भी
अपनी कारस्तानियों के स्वप्न में दाख़िल हो जाते हैं

इतने में पत्नी लगा देती है भोजन
वह स्वादिष्टï लगते पकवान का छुपा जाता है राज़
और निकालता है मीनमेख कि अब
पहले-सी बात नहीं रही तुममें न पहले-सा स्वाद
जबकि जानता है कि अधिकतम समर्पण से बनाया गया है भोजन

पत्नी कुढ़ती है
और किसी आशंका मे
अपनी घर-गृहस्थी समेत डूब जाती है
वह लगा लगाकर गोते उसे खींच खींच निकालता है बार बार
और उससे
सहयोग की कामना करता है
वह स्वीकारती है अनमने मन से आज का अन्तिम फरमान
और ध्वस्त हो जाती है

वह बॉस की तरह मन्द मन्द मुस्कुराता रहता है
और किसी विजेता-भाव में बिला जाता है।