भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ बलिदानी / वीरेंद्र मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ बलिदानी, ये कुर्बानी
व्यर्थ नहीं जा पाएगी!
बिजली बनकर चमक उठेगी,
जब-जब बदली छाएगी!
ये है वही शहादत जिसको,
मिट्टी शीश झुकाती है!
यह है वही प्रभाती जिसको,
धरती माता गाती है!
जो भी हवा चलेगी,
उसमें इसकी रंगत आएगी!
वह चट्टानों पर जन्मी है,
शिखर-शिखर से खेली है!
पर्वत-पर्वत डोल रही है,
फिर भी नहीं अकेली है!
वहाँ-वहाँ आकाश झुकेगा,
जहाँ-जहाँ यह जाएगी।
मंदिर-मस्जिद गुरुद्वारे के
छोटे-मोटे घेरों से
यह तुझको बाहर ले आई
कितने घने अँधेरों से।
यह ही तो वह किरन परी
जो भोर खींचकर लाएगी।