मनहरन घनाक्षरी
(वसंत की अनिवर्चनीय शोभा)
औरैं भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले, औरैं भाँति सबद पपीहन के बै गए ।
औरैं भाँति पल्लव लिए हैं बृंद-बृंद तरु, औरैं छबि-पुंज कुंज-कुंजन उनै गए ॥
औरैं भाँति सीतल, सुगंध, मंद डोलै पौंन, ’द्विजदेव’ देखत न ऐसैं पल द्वै गए ।
औरैं रति, औरैं रंग, औरैं साज, औरैं संग, औरैं बन, औरैं मन, ह्वै गए ॥३०॥