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औरत-३-शेष दिन / मनोज श्रीवास्तव

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औरत-३-शेष दिन

वह
जाले बुनती मकड़ी
दीवारों की सैर करती छिपकली
या, लुका-छिपी खेलती
चुहिया नहीं है,
वह पति की कमीज़ के पास
खड़ी-खड़ी
उसकी अभयदान देती मर्दानी गंध
सुड़क-सुड़क
बेहद सुकून पाती है
और बच्चों की बचकानी पोशाकें
टूटे खिलौनों के हिज्जे जोड़-तोड़
अपनी मेहनत सार्थक करती है

इन दिनों उसे
बहुत-कुछ करना होता है
बतौर साड़ी
समय की छोटी किनारी को
व्याघ्र घर की दबोच से
बचाना होता है
ताकि वह एक पाती लिख सके
और खांस-खखार कर उम्र निपटाती माँ की
कुशल-क्षेम पूछ सके
या, पांव-पोश पर उंकडू बैठकर
भूतपूर्व मधुमास की गर्दीली यादें
झाड़-पोंछ कर
तरोताजा कर सके
या,अपनी पौराणिक आंखों की अश्रुझड़ी से
मिथकीय कपोलें सींचकर
लहलहा सके,
नि:संदेह! खिलने की सालों-साल आस में
वह एक दीमक-खाई
रीतिकालीन पांडुलिपि का
फुनगा-फुनगा पन्ना होती जा रही है

लेकिन, उसे आत्म-संतोष है
कि वह जी रही है
किसी गुमनाम कवि की कल्पनाएँ
जिन्हें वह अपनी यादगाह में
हमेशा महफूज़ रखेगी,
जबकि उसे बच्चों के लिए
कलेवा के गरम करने से
उनके यूनीफार्म समेटने तक
अपनी कुछ नाज़ुक अन्तर्वस्तुएँ
बचानी होती हैं
गिरकर चकनाचूर होने से
जैसेकि माँ-बाप के
निष्प्रभावी आशीर्वचन
उन दिनों कल्पित पति के लिए
गढ़ा गया हवाई महल
सहेलियों की चिकोटती यादें
विवाह-पूर्व उनकी छेड़-छाड़, यंत्रणाएं

उफ्फ! शेष दिन की रेतें
रीता कर जाती हैं उसकी मुट्ठी
और सामने छोड़ जाती है
रविवार का पहाड़
जिस पर वह आदतन चढ़ती रहेगी
लेकिन, कभी पार नहीं कर पाएगी
आख़िरी दम तक.