औरत थी, क़त्ल हो गई जो ख़ामशी के साथ / नलिनी विभा नाज़ली
औरत थी, क़त्ल हो गई जो ख़ामशी के साथ
अपनी अना को खो गई वो ख़ामशी के साथ।
क्या क्या न ज़ब्त उसने किया, किस को क्या ख़बर
पत्थर ग़मों के ढो गई वो ख़ामशी के साथ।
हर अह्द में ख़ुद अपने ही क़ातिल की तेग़ को
अपने लहू से धो गई वो ख़ामशी के साथ।
इस्मत लुटी तो फिर न उठा सर समाज में
ज़िल्लत नसीब हो गई वो ख़ामशी के साथ।
जो आहनी फ़सीलें थी रस्मों की चार सू
उनमें असीर हो गई वो ख़ामशी के साथ।
जब है वुजूद , तो उसे क्यों कोई हक़ नहीं?
कर के सवाल रो गई वो ख़ामशी के साथ।
इन्सानियत कहाँ थी कि सुनता कोई उसे
हैवानियत को रो गई वो ख़ामशी के साथ।
चौखट को पार कर ले कि सहती रहे सितम?
इस कशमकश में खो गई वो ख़ामशी के साथ।
कब तक उठाए जाती यूँ ही ज़ुल्म " नाज़ली "
बाग़ी अख़ीर हो गई वो ख़ामशी के साथ।