भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कपास की आस / विजय कुमार पंत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं कपास का
एक अंश
नहीं जीना चाहता
जैसे जीता रहा मेरा
वंश
अक्सर तुम
बड़ी निर्ममता से
मुझे खीच कर
हथेलियों पर रगड़ -रगड़
जला देते हो दो बूंद
सरसों के तेल में भीगा
अपने रास्तों को रोशन करते हो
उजाला दिखा-दिखा

मैं अब थक चूका हूँ
और तुम्हारे दीपों में नहीं
जलना चाहता हूँ
तंग आ गया हूँ
तुम्हारे कुकर्मों को रौशनी
दिखाते दिखाते
अपना मुस्तकबिल बदलना चाहता हूँ

जाना चाहता हूँ
किसी नर्म रजाई के भीतर
सर्दियों में ठिठुरते
संगमरमरी बदन जलाना चाहता हूँ
किसी गौरंगना के तन से लिपट कर
उसे अपनी बांहों में
छुपाना चाहता हूँ
मैं अपना मुस्तकबिल
खुद बनाना चाहता हूँ

मैं लिपटना चाहता हूँ
उन लाशों पर
जहाँ मुझे
मरनेवाले की औकात से
देखा जाता हो
बड़े तमीज़ से
संग्रहालयों में सहेज कर
रखा जाता हो

मैं थक गया हूँ
भोले -भाले लोगों के
खून में
नहा -नहा कर
तिरंगा बन लहराकर
मासूमों के मौत पर
सरकारी आंसू बहाकर
मैं थक गया हूँ
इस भ्रष्ट समाज के
अन्धकार को जला जला कर

अब मैं दुनिया को जलाना
चाहता हूँ
अपना मुस्तकबिल खुद बनाना चाहता हूँ

ताकि मुझे पैदा करने वाले
क़र्ज़ में डूबकर न मरें
उनको भी दुनिया देखें
वो भी आपने परिवार के साथ ऐश करें

इस लिए मैंने निश्चय किया है
ये कपास दीपक में जलकर
बहुत जिया है
कितनी जिंदगियों का खून
मैंने पिया है
अब मैं जलाना चाहता हूँ
रैम्प पर लहराती
बिजलियों में फहराना चाहता हूँ

क़र्ज़ से मरते किसान को ज़िन्दगी देना
और अपना मुस्तकबिल बनाना चाहता हूँ