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कबीर दोहावली / पृष्ठ ३

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कबीर}}{{KKPageNavigation|पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ २|आगे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ४ |सारणी=दोहावली / कबीर{{KKCatDoha}}}}<poem>ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । <BR/>प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥ <BR/><BR/>
तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । <BR/>माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ <BR/><BR/>
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । <BR/>सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥ <BR/><BR/>
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । <BR/>तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ <BR/><BR/>
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार । <BR/>तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥ <BR/><BR/>
दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । <BR/>रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ <BR/><BR/>
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । <BR/>माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥ <BR/><BR/>
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । <BR/>मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ <BR/><BR/>
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । <BR/>एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥ <BR/><BR/>
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । <BR/>ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥ <BR/><BR/>
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । <BR/>देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥ <BR/><BR/>
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार । <BR/>याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥ <BR/><BR/>
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । <BR/>अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥ <BR/><BR/>
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय । <BR/>चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥ <BR/><BR/>
बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय । <BR/>कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥ <BR/><BR/>
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय । <BR/>समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥ <BR/><BR/>
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम । <BR/>कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥ <BR/><BR/>
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात । <BR/>अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥ <BR/><BR/>
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । <BR/>पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥ <BR/><BR/>
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय । <BR/>बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥ <BR/><BR/>
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश । <BR/>जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥ <BR/><BR/>
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग । <BR/>कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ <BR/><BR/>
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । <BR/>भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥ <BR/><BR/>
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ । <BR/>साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥ <BR/><BR/>
माली आवत देख के, कलियान करी पुकार । <BR/>फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥ <BR/><BR/>
मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय । <BR/>मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥ <BR/><BR/>
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं । <BR/>सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥ <BR/><BR/>
या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ । <BR/>लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥ <BR/><BR/>
राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास । <BR/>नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥ <BR/><BR/>
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । <BR/>हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ <BR/><BR/>
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । <BR/>जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥ <BR/><BR/>
संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । <BR/>कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥ <BR/><BR/>
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय । <BR/>ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ <BR/><BR/>
साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय । <BR/>चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥ <BR/><BR/>
संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । <BR/>कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ <BR/><BR/>
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय । <BR/>चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥ <BR/><BR/>
लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं । <BR/>एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥ <BR/><BR/>
हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह । <BR/>सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । <BR/>आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥ <BR/><BR/>
ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह । <BR/>निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥ <BR/><BR/>
क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात । <BR/>कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥ <BR/><BR/>
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं । <BR/>क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥ <BR/><BR/>बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । <BR/>जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ <BR/><BR/>
ना गुरु मिल्या न सिष भयाबलिहारी गुर आपणौ, लालच खेल्या डाव घौंहाड़ी कै बार <BR/>दुन्यू बूड़े धार मेंजिनि भानिष तैं देवता, चढ़ि पाथर की नाव करत न लागी बार 244 243 <BR/><BR/>
सतगुर हम सूं रीझि करिना गुरु मिल्या न सिष भया, एक कह्मा कर संग लालच खेल्या डाव <BR/>बरस्या बादल प्रेम कादुन्यू बूड़े धार में, भींजि गया अब अंग चढ़ि पाथर की नाव 245 244 <BR/><BR/>
कबीर सतगुर ना मिल्याहम सूं रीझि करि, रही अधूरी सीष एक कह्मा कर संग <BR/>स्वाँग जती बरस्या बादल प्रेम का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष भींजि गया अब अंग 246 245 <BR/><BR/>
यह तन विष की बेलरीकबीर सतगुर ना मिल्या, गुरु अमृत की खान रही अधूरी सीष <BR/>सीस दिये जो गुरु मिलैस्वाँग जती का पहरि करि, तो भी सस्ता जान धरि-धरि माँगे भीष 247 246 <BR/><BR/>
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥  तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । <BR/>वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ <BR/><BR/>
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । <BR/>बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । <BR/>सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । <BR/>फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ <BR/><BR/>
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । <BR/>कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ <BR/><BR/> बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥  यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं । लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥  अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां । के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥  इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं । लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥
बिरहअंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ निहारि <BR/>राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥ <BR/><BR/>यह तन जालों मसि करोंजीभड़ियाँ छाला पड़या, लिखों राम का नाउं । <BR/>लेखणि करूं करंक की, लिखीपुकारि-लिखी राम पठाउं पुकारि 254 257 <BR/><BR/>
अंदेसड़ा न भाजिसीसब रग तंत रबाब तन, सदैसो कहियां बिरह बजावै नित्त <BR/>के हरि आयां भाजिसीऔर न कोई सुणि सकै, कैहरि ही पास गयां कै साईं के चित्त 255 258 <BR/><BR/>
इस तन का दीवा करौजो रोऊँ तो बल घटै, बाती मेल्यूं जीवउं हँसो तो राम रिसाइ <BR/>लोही सींचो तेल ज्यूंमन ही माहिं बिसूरणा, कब मुख देख पठिउं ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ 256 259 <BR/><BR/>
अंषड़ियां झाईं पड़ीकबीर हँसणाँ दूरि करि, पंथ निहारि-निहारि करि रोवण सौ चित्त <BR/>जीभड़ियाँ छाला पड़याबिन रोयां क्यूं पाइये, राम पुकारि-पुकारि प्रेम पियारा मित्व 257 260 <BR/><BR/>
सुखिया सब रग तंत रबाब तनसंसार है, बिरह बजावै नित्त खावै और सोवे <BR/>और न कोई सुणि सकैदुखिया दास कबीर है, कै साईं के चित्त जागै अरु रौवे 258 261 <BR/><BR/>
जो रोऊँ तो बल घटैपरबति परबति मैं फिरया, हँसो तो राम रिसाइ नैन गंवाए रोइ <BR/>मन ही माहिं बिसूरणासो बूटी पाऊँ नहीं, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ जातैं जीवनि होइ 259 262 <BR/><BR/>
कबीर हँसणाँ दूरि करिपूत पियारौ पिता कौं, करि रोवण सौ चित्त गौहनि लागो घाइ <BR/>बिन रोयां क्यूं पाइयेलोभ-मिठाई हाथ दे, प्रेम पियारा मित्व आपण गयो भुलाइ 260 263 <BR/><BR/>
सुखिया सब संसार हैहाँसी खैलो हरि मिलै, खावै और सोवे कौण सहै षरसान <BR/> दुखिया दास कबीर हैकाम क्रोध त्रिष्णं तजै, जागै अरु रौवे तोहि मिलै भगवान 261 264 <BR/><BR/>
परबति परबति मैं फिरयाजा कारणि में ढ़ूँढ़ती, नैन गंवाए रोइ सनमुख मिलिया आइ <BR/>सो बूटी पाऊँ नहींधन मैली पिव ऊजला, जातैं जीवनि होइ लागि न सकौं पाइ 262 265 <BR/><BR/>
पूत पियारौ पिता कौंपहुँचेंगे तब कहैगें, गौहनि लागो घाइ उमड़ैंगे उस ठांई <BR/>लोभ-मिठाई हाथ देआजहूं बेरा समंद मैं, आपण गयो भुलाइ बोलि बिगू पैं काई 263 266 <BR/><BR/>
हाँसी खैलो हरि मिलैदीठा है तो कस कहूं, कौण सहै षरसान कह्मा न को पतियाइ <BR/> काम क्रोध त्रिष्णं तजैहरि जैसा है तैसा रहो, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥ <BR/><BR/>जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ । <BR/>धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ तू हरिष-हरिष गुण गाइ 265 267 <BR/><BR/>
पहुँचेंगे तब कहैगेंभारी कहौं तो बहुडरौं, उमड़ैंगे उस ठांई हलका कहूं तौ झूठ <BR/>आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ 266 268 <BR/><BR/>
दीठा है तो कस कहूं, कह्मा कबीर एक को पतियाइ जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ <BR/>हरि जैसा एक तै सब होत है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ सब तैं एक न होइ 267 269 <BR/><BR/>
भारी कहौं तो बहुडरौंकबीर रेख स्यंदूर की, हलका कहूं तौ झूठ काजल दिया न जाइ <BR/>मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ 268 270 <BR/><BR/>
कबीर एक न जाण्यांकूता राम का, तो बहु जाण्यां क्या होइ मुतिया मेरा नाउं <BR/>एक तै सब होत हैगले राम की जेवड़ी, सब तैं एक न होइ जित खैंचे तित जाउं 269 271 <BR/><BR/>
कबीर रेख स्यंदूर कीकलिजुग आइ करि, काजल दिया न जाइ कीये बहुत जो भीत <BR/>नैनूं रमैया रमि रह्माजिन दिल बांध्या एक सूं, दूजा कहाँ समाइ ते सुख सोवै निचींत 270 272 <BR/><BR/>
कबीर कूता राम काजब लग भगहित सकामता, मुतिया मेरा नाउं सब लग निर्फल सेव <BR/>गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव 271 273 <BR/><BR/>
कबीर कलिजुग आइ करिपतिबरता मैली भली, कीये बहुत जो भीत गले कांच को पोत <BR/>जिन दिल बांध्या एक सूंसब सखियन में यों दिपै, ते सुख सोवै निचींत ज्यों रवि ससि को जोत 272 274 <BR/><BR/>
जब लग भगहित सकामताकामी अभी न भावई, सब लग निर्फल सेव विष ही कौं ले सोधि <BR/>कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि 273 275 <BR/><BR/>
पतिबरता मैली भलीभगति बिगाड़ी कामियां, गले कांच को पोत इन्द्री केरै स्वादि <BR/>सब सखियन में यों दिपैहीरा खोया हाथ थैं, ज्यों रवि ससि को जोत जनम गँवाया बादि 274 276 <BR/><BR/>
कामी अभी न भावईपरनारी का राचणौ, विष ही कौं ले सोधि । <BR/>कुबुध्दि न जीव जिसकी लहसण की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥ <BR/><BR/>भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि खानि <BR/>हीरा खोया हाथ थैंखूणैं बेसिर खाइय, जनम गँवाया बादि परगट होइ दिवानि 276 277 <BR/><BR/>
परनारी का राचणौराता फिरैं, जिसकी लहसण की खानि चोरी बिढ़िता खाहिं <BR/>खूणैं बेसिर खाइयदिवस चारि सरसा रहै, परगट होइ दिवानि अति समूला जाहिं 277 288 <BR/><BR/>
परनारी राता फिरैंग्यानी मूल गँवाइया, चोरी बिढ़िता खाहिं आपण भये करना <BR/> दिवस चारि सरसा रहैताथैं संसारी भला, अति समूला जाहिं मन मैं रहै डरना 288 289 <BR/><BR/>
ग्यानी मूल गँवाइयाकामी लज्जा ना करै, आपण भये करना न माहें अहिलाद <BR/> ताथैं संसारी भलानींद न माँगै साँथरा, मन मैं रहै डरना भूख न माँगे स्वाद 289 290 <BR/><BR/>
कामी लज्जा ना करैकलि का स्वामी लोभिया, न माहें अहिलाद पीतलि घरी खटाइ <BR/>नींद न माँगै साँथराराज-दुबारा यौं फिरै, भूख न माँगे स्वाद ज्यँ हरिहाई गाइ 290 291 <BR/><BR/>
कलि का स्वामी लोभियाहूवा सीतका, पीतलि घरी खटाइ पैलाकार पचास <BR/>राजराम-दुबारा यौं फिरैनाम काठें रह्मा, ज्यँ हरिहाई गाइ करै सिषां की आंस 291 292 <BR/><BR/>
स्वामी हूवा सीतकाइहि उदर के कारणे, पैलाकार पचास जग पाच्यो निस जाम <BR/>रामस्वामी-नाम काठें रह्मापणौ जो सिरि चढ़यो, करै सिषां की आंस सिर यो न एको काम 292 293 <BR/><BR/>
इहि उदर के कारणेब्राह्म्ण गुरु जगत् का, जग पाच्यो निस जाम साधू का गुरु नाहिं <BR/>स्वामीउरझि-पणौ जो सिरि चढ़योपुरझि करि भरि रह्मा, सिर यो न एको काम चारिउं बेदा मांहि 293 294 <BR/><BR/>
ब्राह्म्ण गुरु जगत् काकबीर कलि खोटी भई, साधू का गुरु नाहिं मुनियर मिलै न कोइ <BR/>उरझि-पुरझि करि भरि रह्मालालच लोभी मसकरा, चारिउं बेदा मांहि तिनकूँ आदर होइ 294 295 <BR/><BR/>
कबीर कलि खोटी भईका स्वमी लोभिया, मुनियर मिलै न कोइ मनसा घरी बधाई <BR/>लालच लोभी मसकरादैंहि पईसा ब्याज़ को, तिनकूँ आदर होइ लेखां करता जाई 295 296 <BR/><BR/>
कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई । <BR/>दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥ <BR/><BR/>कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार । <BR/>पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥ <BR/><BR/>
तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ । <BR/>रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ <BR/><BR/>
चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि । <BR/>फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम । <BR/>कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥ <BR[[कबीर दोहावली /पृष्ठ ४|अगला भाग ><BR/>]]
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