भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कबीर}}{{KKPageNavigation|पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ २|आगे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ४ |सारणी=दोहावली / कबीर{{KKCatDoha}}}}<poem>ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । <BR/>प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥ <BR/><BR/>
तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । <BR/>माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ <BR/><BR/>
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । <BR/>सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥ <BR/><BR/>
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । <BR/>तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ <BR/><BR/>
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार । <BR/>तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥ <BR/><BR/>
दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । <BR/>रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ <BR/><BR/>
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । <BR/>माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥ <BR/><BR/>
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । <BR/>मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ <BR/><BR/>
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । <BR/>एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥ <BR/><BR/>
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । <BR/>ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥ <BR/><BR/>
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । <BR/>देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥ <BR/><BR/>
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार । <BR/>याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥ <BR/><BR/>
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । <BR/>अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥ <BR/><BR/>
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय । <BR/>चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥ <BR/><BR/>
बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय । <BR/>कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥ <BR/><BR/>
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय । <BR/>समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥ <BR/><BR/>
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम । <BR/>कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥ <BR/><BR/>
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात । <BR/>अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥ <BR/><BR/>
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । <BR/>पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥ <BR/><BR/>
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय । <BR/>बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥ <BR/><BR/>
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश । <BR/>जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥ <BR/><BR/>
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग । <BR/>कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ <BR/><BR/>
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । <BR/>भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥ <BR/><BR/>
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ । <BR/>साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥ <BR/><BR/>
माली आवत देख के, कलियान करी पुकार । <BR/>फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥ <BR/><BR/>
मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय । <BR/>मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥ <BR/><BR/>
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं । <BR/>सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥ <BR/><BR/>
या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ । <BR/>लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥ <BR/><BR/>
राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास । <BR/>नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥ <BR/><BR/>
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । <BR/>हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ <BR/><BR/>
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । <BR/>जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥ <BR/><BR/>
संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । <BR/>कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥ <BR/><BR/>
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय । <BR/>ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ <BR/><BR/>
साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय । <BR/>चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥ <BR/><BR/>
संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । <BR/>कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ <BR/><BR/>
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय । <BR/>चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥ <BR/><BR/>
लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं । <BR/>एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥ <BR/><BR/>
हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह । <BR/>सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । <BR/>आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥ <BR/><BR/>
ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह । <BR/>निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥ <BR/><BR/>
क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात । <BR/>कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥ <BR/><BR/>
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं । <BR/>क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥ <BR/><BR/>बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । <BR/>जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ <BR/><BR/>
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । <BR/>वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ <BR/><BR/>
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । <BR/>बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । <BR/>सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । <BR/>फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ <BR/><BR/>
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । <BR/>कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ <BR/><BR/> बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥ यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं । लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥ अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां । के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥ इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं । लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥
सुखिया सब रग तंत रबाब तनसंसार है, बिरह बजावै नित्त खावै और सोवे । <BR/>और न कोई सुणि सकैदुखिया दास कबीर है, कै साईं के चित्त जागै अरु रौवे ॥ 258 261 ॥ <BR/><BR/>
कबीर एक न जाण्यांकूता राम का, तो बहु जाण्यां क्या होइ मुतिया मेरा नाउं । <BR/>एक तै सब होत हैगले राम की जेवड़ी, सब तैं एक न होइ जित खैंचे तित जाउं ॥ 269 271 ॥ <BR/><BR/>
कबीर रेख स्यंदूर कीकलिजुग आइ करि, काजल दिया न जाइ कीये बहुत जो भीत । <BR/>नैनूं रमैया रमि रह्माजिन दिल बांध्या एक सूं, दूजा कहाँ समाइ ते सुख सोवै निचींत ॥ 270 272 ॥ <BR/><BR/>
परनारी का राचणौराता फिरैं, जिसकी लहसण की खानि चोरी बिढ़िता खाहिं । <BR/>खूणैं बेसिर खाइयदिवस चारि सरसा रहै, परगट होइ दिवानि अति समूला जाहिं ॥ 277 288 ॥ <BR/><BR/>
तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ । <BR/>रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ <BR/><BR/>
चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि । <BR/>फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम । <BR/>कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥ <BR[[कबीर दोहावली /पृष्ठ ४|अगला भाग ><BR/>]]