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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कबीर}}{{KKPageNavigation|पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ३ |आगे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ५ |सारणी=दोहावली / कबीर}}{{KKCatDoha}}<poem>सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । <BR/>तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ <BR/><BR/>
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । <BR/>मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ <BR/><BR/>
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । <BR/>पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ <BR/><BR/>
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । <BR/>सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ <BR/><BR/>
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । <BR/>जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । <BR/>सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ <BR/><BR/>
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । <BR/>सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ <BR/><BR/>कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । <BR/>सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जग की जो कहैमाया पापरगी, भौ जलि बूड़ै दास फंध ले बैठी हाटि । <BR/>पारब्रह्म पति छांड़ि करिसब जग तौ फंधै पड्या, करै मानि की आस गया कबीर काटि ॥ 309 308 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन पंषो भयातास मिलाइ, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय जास हियाली तू बसै । <BR/>जो जैसी संगति करैनहिंतर बेगि उठाइ, सो तैसे फल खाइ नित का गंजर को सहै ॥ 336 334 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा खाई कोट किबन-बन मे फिरा, पानी पिवै न कोई कारणि आपणै राम । <BR/>जाइ मिलै जब गंग सेराम सरीखे जन मिले, तब गंगोदक होइ तिन सारे सवेरे काम ॥ 337 335 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई । जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥ माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । <BR/>
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । <BR/>कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ <BR/><BR/> हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत । ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥ पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण । पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति । जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥
कबीर केवल राम माला मन की, तू जिनि छाँड़ै ओट और संसारी भेष । <BR/>घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँमाला पहरयां हरि मिलै, घणी सहै सिर चोट तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 365 367 ॥ <BR/><BR/>
माला पहिरै मनभुषीपहरयां कुछ नहीं, ताथै कछू भगति न होइ आई हाथ । <BR/>मन माला को फैरतामाथौ मूँछ मुंडाइ करि, जग उजियारा सोइ चल्या जगत् के साथ ॥ 368 370 ॥ <BR/><BR/>
पावक रूपी राम वियोगी तन बिकलहै, ताहि न चीन्हे कोई घटि-घटि रह्या समाइ । <BR/>तंबोली के पान ज्यूंचित चकमक लागै नहीं, दिनताथै घूवाँ है-दिन पीला होई है जाइ ॥ 381 382 ॥ <BR/><BR/>
कबीर दुबिधा दूरि करिका तू चिंतवै, एक अंग है लागि का तेरा च्यंत्या होइ । <BR/>यहु सीतल बहु तपति हैअण्च्यंत्या हरिजी करै, दोऊ कहिये आगि जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 390 391 ॥ <BR/><BR/>
कबीर संसा कोउ नहींसोई सूरिमा, हरि सूं लाग्गा हेत मन सूँ मांडै झूझ । <BR/>काम-क्रोध सूं झूझणापंच पयादा पाड़ि ले, चौडै मांड्या खेत दूरि करै सब दूज ॥ 398 399 ॥ <BR/><BR/>