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कब तक? / अवनीश सिंह चौहान

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दाँव लगा कपटी शकुनी से
हार वरूँ मैं कब तक ?
कहो, तात-विपरीत तटों का हरकारा-
सेतु बनूँ मैं कब तक ?
इनका-उनका बोझा-बस्ता
पीठ धरूँ मैं कब तक ?
बड़े-बड़े ज़ालिम पिंडों की
चोट सहूँ मैं कब तक ?
पाँव फँसाए गहरे पानी
खड़ा रहूँ मैं कब तक ?
नीली होकर उधड़ी चमड़ी
धार गहूँ मैं कब तक ?
कोई तो बतलाए आकर
यहाँ रहूँ मैं कब तक ?
रोआँ-रोआँ हाड़ कँपाती
शीत सहूँ मैं कब तक ?
बिजली, ओलों, बारिश वाली
रात सहूँ मैं कब तक ?
बहुत हुआ, अब और न होगा
धीर धरूँ मैं कब तक ?
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