भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कभी छलका नहीं था एक कतरा आब आंँखों से/ धर्वेन्द्र सिंह बेदार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धर्वेन्द्र सिंह बेदार |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:36, 19 अप्रैल 2024 के समय का अवतरण

कभी छलका नहीं था एक कतरा आब आंँखों से
मगर अब आंँसुओं का बह रहा सैलाब आंँखों से

किसी की याद आई है कि बरसों बाद आई है
किसी की राह हम भी तक रहे बेताब आंँखों से

सनम इस चांँद जैसे हुस्न पर इतना न इतराओ
कि हमने डूबते देखे यहाँँ महताब आंँखों से

घड़ी भर के लिए आया विसाल-ए-यार का सपना
मगर फिर हो गया ग़ायब सुनहरा ख़्वाब आंँखों से

फ़क़त हम ही नहीं बेदार हैं फ़ुर्क़त की रातों में
हमें 'बेदार' तुम भी लगते हो कम-ख़्वाब आंँखों से