भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी वो शोख़ मेरे दिल की अंजुमन तक आए / 'अना' क़ासमी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:44, 21 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='अना' क़ासमी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem> कभी वो शोख़ मेर…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी वो शोख़ मेरे दिल की अंजुमन तक आए
मेरे ख़्याल से गुज़रे मेरे सुख़न तक आए

जो आफ़ताब थे ऐसा हुआ तेरे आगे
तमाम नूर समेटा तो इक किरन तक आए

कहे हैं लोग कि मेरी ग़ज़ल के पैकर से
कभी कभार तेरी ख़ुशबू-ए-बदन तक आए

जो तू नहीं तो बता क्या हुआ है रात गए
मेरी रगों में तेरे लम्स की चुभन तक आए

अब अश्क पोंछ ले जाकर कहो ये नरगिस को
अगर तलाशे-नज़र है मेरे चमन तक आए

तमाम रिश्ते भुलाकर मैं काट लूँगा इन्हें
अगर ये हाथ कभी मादरे-वतन तक आए

जो इश्क़ रूठ के बैठे तो इस तरह हो 'अना'