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कविता-7 / शैल कुमारी

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दूर तक फैला अभेद्य अंधकार
बेजान शिशु की तरह जन्म लेता भयावह सन्नाटा
शब्दों की आकृतियाँ बनती हैं
बिगड़ती हैं
अर्थ के साथ सही रिश्ते खो गए हैं
मानो
ज़मीन से दूर, आसमान में, निराश
बादलों के छोटे-छोटे छौने बहक गए हैं
कहने को बहुत कुछ बाक़ी है
न कह पाने की मजबूरी
एक और शून्य रचती है
वेदना के क्षण
ये ही सच हैं
आओ हम इन्हें तराशते रहें
कोई भी धुन, थिरकन और हवा में कंपन
मन के तार नहीं छूती
कोई भी ताल नहीं बैठती
शायद, ज़िंदगी की हर धड़कन
अपना मक़सद भूल गई है
और अब अपनी ही गूँज से डरती
एक पनाह माँग रही है।