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"कविता जम गई है-सर्दी का / राकेश खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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01:13, 1 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

नहीं छोड़ती स्याही चौखट कलम की
नहीं स्वर उमड़ता गले की गली में
लिखूँगा कैसे कविता तुम्हीं अब बताओ
घुले भाव सब चाय की केतली में

ठिठुर कँपकँपाती हुई उँगलियाँ अब
न कागज़ ही छूती, न छूती कलम ही
यही हाल कल था, यही आज भी है
है संभव रहेगा यही हाल कल भी

गये दिन सभी गाँव में कंबलों के
छुपी रात जाकर लिहाफ़ों के कोटर
खड़ीं कोट कोहरे का पहने दिशायें
हँसे धुंध, बाहों में नभ को समोकर

परवाज़ है पाखियों की कहीं भी
न मिलता कबूतर का कोई कहीं पर
शिथिलता है छाई, लगा रुक गया सब
न कटती है सुबह, न खिसके है दुपहर

निकल घर के बाहर कदम जो रखा तो
बजीं सरगमें दाँत से झनझनाकर
हवा उस पे सन सन मजीरे बजाती
जो लाई है उत्तर के ध्रुव से उठाकर

न दफ़्तर में कोई करे काम, चर्चा
यही आज कितना ये पारा गिरेगा
पिये कितने काफ़ी के प्याले अभी तक
भला कितने दिन और ऐसा चलेगा

न लिखने का दम है न पढ़ने की इच्छा
ये सुईयाँ घड़ी की लगे थम गई हैं
मिलें आपसे अब तो सप्ताह दस में
ये कविता मेरी आजकल जम गई है