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कविता सुनाओ / रामनरेश पाठक

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कविता सुनाओ,
बोल देते हो,
बड़ी हिम्मत तुम्हारी,
बड़ी जुर्रत तुम्हारी
बोल देते हो - जरा कविता सुनाओ.

सुबह की ओस ने जो डूब पर अपना दरद खोया,
शलभ जो साधना की आंच में जल मौन हो सोया,
कुमुदिनी रात भर खिलकर सिसकती सो गयी भोरे,
पपीहे की रतन बेसूद ही ठहरी उगे तब कंठ पर फोड़े,
कि चकवी की तपन से रात भर नभ में उगे शोले,
भरा है गीत में मेरे,सुबह जो गुनगुनाता हूँ
इन्ही का दर्द, बोलो, सह सकोगे?
कविता सुनाओ
बोल देते हो,
बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी!

कोंपलों की फूटती हुई जवानी की
मधुर अंगड़ाईयां भी हैं
नील गहरी झील में सोना लुटाते
व्योम की परछाईयाँ भी हैं,
कोयल की चुटीली तान की
लाचारियाँ भी हैं,
क्षितिज की छोर से कढती हुई,
कुछ लोरियाँ भी है,

सुनो; इस मौन मन में घिर रहा है
रूप जिनका, खींचती बरबस ठभरती
गोरियाँ भी हैं
अरे, वह जल गयी सिगरेट
बनकर राख, अपने प्राण का संगीत,
सौरभ दे पवन को लुट गयी जो
है इन्हीं का प्राण मेरे गीत में
बिलकुल सुबह जो गुनगुनाता हूँ,
उसे तुम गा सकोगे-
बोल देते हो,
भई, कविता सुनाओ
बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी!

खेत में चूते पसीने की कई सौ बूँद गुनगुन गुनगुनाती,
रेत में बहते पसीने की कई सौ गूँज कुछ सपने सजाती
पुत रहा जो खून मीलों की मशीनों पर सलज वह मुस्कुराती
दफ्तरों में फाईलों पर फैलती को ऊब वह भी सहम जाती,
फावड़ों का, कलम का, उस फाल का,
रो-रो उभरती पेशियों का, तलहथी का,
घाव जो आकाश पर ही घुटन अपनी, पीब अपना,
पोतता है;
है उसी की तीस पुरनम गीत में मेरे
दुपहरी को सुनाता हूँ,
बताओ, सह सकोगे दर्द उनका
बोल देते हो,
भई, कविता सुनाओ
बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी!