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"कवि आज सुना वह गान रे / अटल बिहारी वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर

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कवि आज सुना वह गान रे,
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जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
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नस–नस में जीवन झंकृत हो,
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हो अंग–अंग में जोश झलक। 
  
कवि आज सुना वह गान रे,<br>
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ये  -  बंधन  चिरबंधन
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।<br>
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टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
नस – नस में जीवन झंकृत हो,<br>
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हम मिलकर हर्ष मना डालें,  
हो अंग – अंग में जोश झलक।<br><br>
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हूकें उर की मिट जाएँ सभी। 
  
ये  -  बंधन  चिरबंधन<br>
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यह भूख भूख सत्यानाशी
टूटें फूटें प्रासाद गगनचुम्बी<br>
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बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम मिलकर हर्ष मना डालें,<br>
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हम वर्षों से रोते आए
हूकें उर की मिट जायँ सभी।<br><br>
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अब परिवर्तन हो जीवन में। 
  
यह भूख भूख सत्यानाशी<br>
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क्रंदन क्रंदन चीत्कार और,
बुझ जाय उदर की जीवन में।<br>
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हाहाकारों से चिर परिचय।
हम वर्षों से रोते आए<br>
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कुछ क्षण को दूर चला जाए,
अब परिवर्तन हो जीवन में।<br><br>
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यह वर्षों से दुख का संचय। 
  
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,<br>
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हम ऊब चुके इस जीवन से,  
हाहाकारों से चिर परिचय।<br>
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अब तो विस्फोट मचा देंगे।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,<br>
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हम धू - धू जलते अंगारे हैं,  
यह वर्षों से दुख का संचय।<br><br>
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अब तो कुछ कर दिखला देंगे। 
  
हम ऊब चुके इस जीवन से,<br>
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अरे ! हमारी ही हड्डी पर,  
अब तो विस्फोट मचा देंगे।<br>
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इन दुष्टों ने महल रचाए।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,<br>
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हमें निरंतर चूस – चूस कर,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।<br><br>
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झूम – झूम कर कोष बढ़ाए। 
  
अरे ! हमारी ही हड्डी पर,<br>
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रोटी – रोटी के टुकड़े को,  
इन दुष्टों ने महल रचाए।<br>
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बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
हमें निरंतर चूस चूस कर, <br>
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इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
  झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।<br><br>
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रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,  
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।<br>
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क्या यही हमारा जीवन है?
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,<br>
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हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,  
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।<br>
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फिर कैसा यह बंधन है?
पानी फेरा मर्यादा पर,<br>
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मान और अभिमान लुटाया।<br>
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रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,<br>
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मानव स्वामी बने और—
क्या यही हमारा जीवन है ?<br>
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मानव ही करे गुलामी उसकी।
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,<br>
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किसने है यह नियम बनाया,  
फिर कैसा यह बंधन है ?<br><br>
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ऐसी है आज्ञा किसकी?
  
मानव स्वामी बने और—<br>
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सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
मानव ही करे गुलामी उसकी।<br>
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और मृत्यु सब पाएँगे।
किसने है यह नियम बनाया,<br>
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फिर यह कैसा बंधन जिसमें,  
ऐसी है आज्ञा किसकी ?<br><br>
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मानव पशु से बंध जाएँगे ?
  
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,<br>
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अरे! हमारी ज्वाला सारे—
और मृत्यु सब पाएँगे।<br>
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बंधन टूक-टूक कर देगी।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,<br>
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पीड़ित दलितों के हृदयों में,  
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अब न एक भी हूक उठेगी। 
  
अरे ! हमारी ज्वाला सारे—<br>
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हम दीवाने आज जोश की—
बंधन टूक-टूक कर देगी।<br>
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मदिरा पी उन्मत्त हुए।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,<br>
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सब में हम उल्लास भरेंगे,  
अब न एक भी हूक उठेगी।<br><br>
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ज्वाला से संतप्त हुए। 
  
हम दीवाने आज जोश की—<br>
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रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,  
मदिरा पी उन्मत्त हुए।<br>
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आज आग में आहुति दे।  
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आज आग में आहुति दे।<br>
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हद् – तंत्री झंकृत कर दे।
 
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।
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00:09, 13 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस–नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग–अंग में जोश झलक।

ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जाएँ सभी।

यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।

क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।

हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।

अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।

रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया?

रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है?

मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी?

सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बंध जाएँगे ?

अरे! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।

हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।

रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।