भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कवि कमलेश की कविता / नीलिम कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:59, 10 मार्च 2024 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देश के महत्वपूर्ण कवि कमलेश से मेरी दिल्ली में सिर्फ़ एक बार मुलाकात हुई। उसके बाद जीवन में दुबारा उनसे मुलाकात करने का सौभाग्य नहीं मिला। इस महान कवि के संस्पर्श की छाया में एक पल गुज़ारने की इच्छा मन की मन में ही रह गई । उनकी कुछ कविताएँ मैंने ‘समास’ और ‘पूर्वग्रह’ के पन्नों में पढ़ी थीं। लेकिन जब तक मैंने उनके ‘खुले में आवास’ और ‘बसाव’ नाम के दो कविता संग्रह पढ़े नहीं थे, तब तक मैंने उनकी कविताओं का विशाल अवयव नहीं देखा था ।

उनके बारे में कुछ लिखना या कहना मेरे लिए धृष्टता ही होगी, क्योंकि उनकी कविताओं की गहराई को नापने के लिए उनकी लिखित भाषा को पूरी तरह जानना उचित होगा। उस भाषा के इतिहास और गौरव के साथ एकात्म सम्पर्क होना उचित होगा और मैं एक सीमा से बँधा हुआ हूँ क्योंकि मैं साठ- सत्तर प्रतिशत ही हिन्दी जानता हूँ और कमलेश के बारे में इतनी हिन्दी समझने के बल पर कुछ कहने का मतलब मुझे लगता है कि मैं एक अपराध कर रहा हूँ।

ये अधूरी जानकारी मेरे लिए एक अनन्य अनुभव है और कमलेश की कविता पाठ करने के मामले में मैं अपने आपको उपकृत महसूस कर रहा हूँ, जिसका फल यह हुआ कि जो कमलेश कहना चाहते थे उसमें से बहुत-सी बातें बिना समझे रह गईं और जो वे कहना नहीं चाहते थे मानो वो सब मैं समझ गया । उनके काव्य पाठ के ऐसे विस्मयकारी अनुभव ने न सिर्फ़ मुझे समृद्ध किया है बल्कि वह मुझे एक अन्य जगत में विचरण करने के लिए मानो निरन्तर आमन्त्रित कर रहा है । इसलिए हो सकता है कि कमलेश के बारे में मेरी कही गई बातें आप लोगों की बातों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाएँगी

कमलेश के ‘बसाव’ नामक कविता-संग्रह की पहली कविता ’भंगुर’ पढ़कर मैं पुलकित हो उठा था। दरअसल उस कविता में जगत के बारे में एक ताना कसा गया है :

मुट्ठी में लें इसे
मींड़ें
गूँथे
मरोड़ें
लोई बनाएँ ।

लम्बाएँ
गोलाएँ
हथेली में दबाएँ ।

साँचे में ढालें
कोने, किनारे
तार से काटें ।

चाक पर रखें
सुथारें
सुचारें
सँवारें
देवें आकार
सुखाएँ
पकाएँ
रोगन लगाएँ ।

हाथ में लें
उलट-पलट
सहलाएँ
पोसाएँ
चुमचुमाएँ

सब कुछ करें
सँभालें इसे
यह टूटे नहीं
यह भंगुर है
यह जीवन है ।

इस कविता को पढ़कर यह स्वीकारे बिना नहीं रहा जा सकता कि कविता भी एक उत्कृष्ट व्यंग हो सकती है । सहज उपलब्धि और उक्ति जैसी लगने वाली इस भाषा की आड़ में, जो द्विधापूर्ण अर्थवत्ता छिपी हुई है, वह कमलेश की कविताओं को व्यक्तिगत स्तर से उठाकर मानवीय विश्वास के रूप में बदल देती है।

‘भूलभुलैया’ कविता को देखिए  :

इस भूलभुलैया में
कहीं पहुँचना है,
प्रवेश हर दिशा से है,

टकरा दीवाल से
भीतर पता चलता है
भटक गए इस बार ।

स्थान ज्ञात नहीं
जहाँ पहुँचना है
जब तक अज्ञात है
तब तक है पास कहीं...।

पहनावा, देह यह
दुनिया, दिखावा यह
जिसका भी वास है
भीतर इस तन के
वही है क्या वह
जो तुम्हारे पास है !...

(भूलभुलैया)

बौद्ध दर्शन का कथित शून्यवाद मानो इस कविता में निहित है। शून्य क्या है, इसको जानने के पहले शून्य क्या नहीं है, उसे जानना ज़रूरी है। शून्य का अर्थ यह नहीं है कि संसार में कुछ नहीं है। शून्यतावाद वस्तु के वजूद को अस्वीकार नहीं करता है। संसार में सारी वस्तुएँ अविद्या या अज्ञानता से पैदा होती हैं — स्थान ज्ञात नहीं। जहाँ पहुँचना है, जब तक यह अज्ञात है, तब तक है पास कहीं — शून्यवाद के मत से वस्तु पवित्र है, अपवित्र नहीं। सब कुछ है भूलभुलैया ।

कमलेश की बहुत-सी कविताओं में शून्यवाद का स्वर बिखरा हुआ है।

उनकी कविताओं की स्मृति केवल व्यक्तिगत स्मृति नहीं है, वह समग्र बोध और सांसारिक अनुभवों का हिस्सा है। उनकी कविताओं में बुद्धिजात तर्क के विपरीत जीवन को परम मर्यादा देने वाली सम्वेदना और अनुभूति को प्रभावशाली रूप में सक्रिय होते देखा गया है।

ड्योढ़ी के सामने मौलिश्री का पेड़ था।

तिथियों पर साँझ हुए,
थाल लिए
माँ आती,
मन ही मन कुछ बुदबुदाती,
दीये जलाती ।

एक मनौती बेटे के लिए —
एक मनौती बेटी के लिए —
माँ के मन में
प्रार्थनाएँ ही प्रार्थनाएँ थीं ।

दीये जलते रहते देर रात तक ...
सुबह थाल भरा होता था
मौलिश्री के फूलों से ।

माँ एक बार देखती बेटे को —
फिर एक बार देखती बेटी को —
दोनों पूछते — क्या है माँ !

गुमसुम माँ रसोई में आ जाती !
क्या होता है माँ का माँ होना !

(मौलिश्री)

इसीलिए वे लिख सकते है ऐसे कुछ वाक्य, जहाँ विरोधाभास विमूर्तता की सृष्टि नहीं करता है, बल्कि जीवन के अस्थिर अनिश्चित रूप के जैविक भाव का विमोचन करता है।

‘भिखारियों का संसार’, ‘मृत’, ‘अकाल के दृश्य’, ‘हालत बदतर है’, ‘बाँचना पड़ता है रोज़ अखबार’ आदि कविताओं में उनका विवेकी कण्ठ स्वर समाज की वास्तविक धारा के विवरण के विपरीत था, जो एक ही वक़्त पर प्रतिध्वनित करता है व्यक्तिगत और सामजिक चेतना को। उनकी इन कविताओं में प्रकट सचेतन सम्वेदनशीलता ने समाज की सच्चाई को उच्च स्तर की मर्यादा प्रदान की है :

भिखारी
पत्थर पर बैठे हैं
पत्थर उनका नहीं है ।

भिखारी
ज़मीन पर खड़े हैं
ज़मीन उनकी नहीं है ।

भिखारियों के हाथ
फैले हुए हैं
आकाश उनका नहीं है । ...

कहने को
भिखारियों को
कुछ नहीं खोना है

केवल ज़ंजीर
हासिल करने को
सारा संसार है ।

(भिखारियों का संसार)

मूल्यबोध का पुनर्जन्म हो या न हो, मानव विरोधी सारे षड़यन्त्र को कवि ने तीव्र श्लेषात्मक भाषा से और इशारों की पूर्णता से प्रत्याक्रमित किया है। मानवीयता के अस्तित्व के पक्ष में। कमलेश ने अन्याय, अविचार, द्विधा, द्वन्द्व, संत्रास, सम्पर्क की अवलुप्ति आदि को कविता की मर्यादा दी है । ‘लाभांश’ कविता की तरफ गौर करें —

दीवानखाना नई शैली में सुसज्जित है इस वार्षिक अवसर पर
पिता आते हैं अवसर-अनुकूल गम्भीर मुद्रा में सज-धजकर
जैसे कम्पनी के संचालक-मण्डल की बैठक हो...

पिता सबके हिलते सिर देख सन्तोष प्रकट करते हैं,
सब आज्ञाकारी है, सब में फिर सौमनस्य,
और चले जाते हैं उठते, स्वीकार करते अभिवादन
स्वास्थ्य की मुद्रा लेकर अपने कमरे में

कपड़े टाँगते है, दवा की शीशियों को गिरने से बचाते हुए
माँ और पुत्र हैं
सहारा दे लिटाते हुए

वे जानते हैं
पिता की आयु
एक वर्ष और बढ़ गई ।

इस ख़ुशी में वे पिता को
दुगुनी ख़ुराक दवा देकर
बैठक बरख़ास्त होने के पहले
लाभांश बढ़ने की घोषणा करते हैं ।

(लाभांश)

मनुष्य के प्रति गहरी आत्मीयता के कारण ही कवि ने यन्त्रणा, आतंक और दुख की अग्नि-परीक्षा के बीच भी भारतीय समाज की चेतना को उज्जवल रूप में पकड़ रखा है । इसीलिए कमलेश की कविताओं में सन्देह और संशय है, लेकिन विच्छिन्नता नहीं है, विभ्रान्ति और दिशाभ्रम की परिस्थितियों के बावजूद उनकी कविताएँ हमें विश्वास दिलाती हैं । मनुष्य और संसार के प्रति एक जि़म्मेदारी का भाव महसूस होने के कारण ही उनकी कविताओं में करुणा और विषाद हृदय को भेदने की शक्ति बनी हुई है । दुख उनकी कविता का एक मुख्य विषय है :

दुख यह अपना ही यदि होता
इन्द्रिय तन्त्र सहन कर लेता ।
गढ़कर क़िस्से नगर-नगर में
भीख माँग झोली भर लेता ।

दुख ही जब दो का हो जाए
दोनों हों जब पास-पड़ोसी....
बस जाएँ फिर उसी नगर में
जहाँ भीख से भर दे झोली ।

क़िस्से उसी लोक के गाकर
राह काट लें दो हमजोली ।

(दुख यह)

बहुत-सी कविताओं में कवि कमलेश ने चित्रधर्मी आंगिक सीमाबद्धता का अतिक्रमण कर गतिमान जगत के चरित्र को रूपायित किया है। ऐसी कुशलता उनकी कई कविताओं में विद्यमान है । उनमें से एक है — ‘यह मेरा भाई था’ :

मैं बड़ा हो रहा था ।
पाठशाला जाने लगा था ।

मैं सौरी की ओर
देखता था बार-बार,
माँ कई दिनों से वहीं थी,
खाट पर लेटी ।
पैंताने खड़ी थी नायन ।

मैं उस कोठरी की ओर
देखता था बार-बार
मालूम था मुझे
एक भाई या बहिन....

(यह मेरा भाई था)

 ‘बेटी’ नामक अन्य एक कविता में :

बेटी, गुड़िया सजाओ
चन्दा को बुलाओ
झूले में झुलाओ...

माँ से सीखो —
सिलाई - बुनाई,
कताई - कढ़ाई
सखी-सहेली से गीतों के बोल...

(बेटी)

सचेत पाठक अगर ग़ौर करे, तो पता चलेगा कि कविता को एक निर्दिष्ट गठन से हटाने के लिए आख्यान का उपयोग किया गया है। प्रचलित रीति को हटाकर द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक विषयों का उद्घाटन किया गया है। इस संधि-क्षण में पाठक को कवि की दक्षता और मौलिकता का पता चलेगा । कवि ने लिखित भाषा और संयोग से निकलकर नेरेटिव गठन के बीच में निजस्व स्वतन्त्रता की घोषणा की है ।

वे जब कविता को ऊँचाई तक ले जाना चाहते हैं, तो वह ऊँचाई स्वतःस्फूर्त रूप से उनकी भाषा में प्रकट होती है — ज्ञान की वस्तुगत उपलब्धि, जिसमें विश्व ब्रह्माण्ड को जगाने की आकांक्षा पैदा होती है। इसीलिए वे लिखते हैं  :

हृदय का अपरिमित
विस्तार करती करुणा
सत्य का सामीप्य पाकर
एक टुकड़ा बन जाती है बादल का ।

यह बादल
बरसने लगता है धरती पर
शान्ति बनकर
झर-झर...

(इस आकाश में)

‘साक्षात्कार’ कविता में देखें :
 
सम्भव कैसे हो
स्वयं से साक्षात
अन्तर्मुख होते ही
समर का सूत्रपात।...

‘खुले में आवास’ संकलन में इसी नाम की एक कविता में जब वे कहते हैं :

वहाँ, उस खुले में ही
तुम्हारा घर है
खुला अभी बचा है वन के फैलाव से

धरती पर कच्छप पीठ सा उठा हुआ
अजानी, अदेखी, संकरी पगडण्डी है
पैतृक आवाज़े वहाँ ले जाती है....

वहाँ, उस खुले में ही
तुम्हारा घर है।

ऐसे समय में हम देखते हैं कि उनका आकाश या मुक्ति का प्रतीक उपलब्धि के बीच से कल्प-कथा का रूप ले रहा है। जो उनके लिए एक ऐसा यथार्थ है, जिससे मुँह नही मोड़ा जा सकता। उनके लिए यह काल निरपेक्ष तात्विक उपलब्धि है। कमलेश की यह खोज कोई अमूर्त कवायद नहीं है ,बल्कि मानव सभ्यता की भयावह गति-गोत्र और ट्रेजिक परिणति तथा मूल्यबोध के अन्तःसार शून्य के बीच गढ़ी कविता का नेरेटिव है।

‘खुले में आवास’ और ‘बसाव’ इन दोनो कविता-संग्रहों में कमलेश की कविताओं पर अगर गहराई से ग़ौर किया जाए तो हमें एक ख़ास विषय नज़र आएगा, वह है — आकाश उनके लिए एक दार्शनिक उपलब्धि है। आकाश उनके लिए सनातन उपलब्धि है, जिसके नीचे खड़े होकर वे स्थान और समय द्वारा निर्धारित सारी सीमाबद्धताओं का अतिक्रमण कर सकते हैं। उनकी आत्मा निरन्तर गुनगुनाती है, इस काल निरपेक्ष आकाश या मुक्ति या शून्यता की संस्कृति का
बसाव हर कहीं है।

बसाव ही बसाव है —
पृथिवी पर, देवलोक में
कहीं पितरों का बसाव है
कहीं अन्तरिक्षवासियों का ।

पूछिए किसी से, किसी अन-किसी से,
किसका बसाव है। देखिए, कोई बसाव है
चेन्नई से एक सौ चौंतीस मील दूर
कुपवारा के उत्तर में
बर्फ़ के पहाड़ों पर
चढ़ते हुए
तिब्बत सीमा पर
नेपाल की झील के तट पर
बसाव है देवताओं का
देवता ही देवता है...

(बसाव)

‘बसाव’ संकलन की कविताओं में देखा जा सकता है कि कमलेश ने कविता के गौरव को सजीव और सक्रिय कर दिया है और युग सन्धि के आलोड़न को नए खून से उज्जीवित कर दिया है। ऐसी कविताओं में उनका युग्मविरोध स्पष्ट हो जाता है। उनके इस युग्मविरोध की पृष्ठभूमि पर विचार करना एक जटिल काम है। एक कवि सामाजिक भावावेग को किस तरह ग्रहण करता है और प्रतिष्ठित मूल्यबोध के साथ उसके विरोध का रूप कैसा है, उसके बौध्दिक गठन के ऊपर ही यह निर्भर करता है ।

जीवन की अपूर्णता, हताशा को ्कविता के शिल्प से रूपायित कर हमारे चिन्तन स्रोत को तरंगयित करने में कमलेश सिद्धहस्त थे। उनकी कविताओं में पाठक को किसी निर्धारित भावना, शब्द-चयन और गठन का पूर्वाभास नहीं मिलता है। कविताएँ इस तरह स्तरीभूत हो गई हैं कि कवि की तरह पाठक भी अनजान हैं कि वाक्यों की शुरुआत कहाँ से होती है और वह ख़त्म कहाँ पर होते हैं। यही है कविता की आत्मविवृति और आत्मनिर्धारण की कुशलता।

इसी काव्य-कुशलता ने ही कमलेश की कविताओं के तात्पर्यपूर्ण लक्षण का विमोचन किया है। कमलेश विप्लवी नहीं थे। लेकिन जीवन और ज़िन्दा रहने के सारे कारणों के पक्ष में उन्होंने मध्यवर्गीय चतुराई को झकझोर दिया है। कामू ने घोषणा की थी — मैं इसलिए विप्लव का विरोध करता हूँ कि अन्त में जीवन ही विप्लव का विरोधी हो जाता है। उस अर्थ में कमलेश को विप्लवी न कहकर एक ऐसा सृजनशील व्यक्ति कहना होगा जो जीवन की विशाल सम्भावना को सजीव करने में सृजनशील वातावरण की आराधना करता है, ताकि वह एक उन्नत संस्कृति का प्रतिनिधित्व करे, एक ऐसी संस्कृति का, जहाँ सभ्यता के यथार्थ के जनतान्त्रिक रूप को हम पा सकेंगे।

कमलेश की कविता से रू - ब - रू होने के बाद मैं बार-बार एक ऐसे अदृश्य जगत में प्रवेश कर जाता हूँ, जहाँ केवल सवाल होते हैं और उन सवालों में ही उनके जवाब होते हैं। उन सवालों में हम मानसिक बैचेनी से सहमत हुए बिना नहीं रह सकते। ऐसा लगता है जैसे जवाब हैं इसीलिए सवालों का जन्म हुआ है। जवाब होते हैं अविचलित।

‘खुले में आवास’ की इस कविता पर गौर करें जिसका शीर्षक है- ‘बेकार चीजें’ :

घोंघे, कंकड़, कागज़
घिसे पत्थर, केकड़े
प्लास्टिक के खिलौनों के टुकड़े,
पतंग की सड़ी डोर
बाँस की खपच्चियाँ,
सेवार सी काई
पावोँ तले रिसता जल
मरी पड़ी मछलियाँ...
शीर्षक चमकाता खबर -टुकड़ा

और तुम कहीं नहीं
पत्थर-पर-पत्थर कदम रखते
ज्वार के बीच जाते।

तुम्हारा चेहरा याद
सदा चमकता खबर - टुकड़ा
सेवार सी काई
केंकड़े, घिसे पत्थर
सड़ती डोर पतंग की
जीवार के बीच जाते
बेकार सी स्मृतियाँ
मरी पड़ी मछलियाँ।

जिन्हें हम बेकार समझते है उन वस्तुओं के अस्तित्व की घोषणा करते हुए कवि कहता है कि वे आदमी के साथ किसी न किसी रूप में न सिर्फ़ जुड़ी हुई होती हैं बल्कि वे मनुष्य के बोध - जगत में भी अपने आपको प्रमाणित करती हैं। ये बेकार चीज़ें रास्ते-घाट में पड़ी हुई बेकार चीज़ें ही नहीं है, हमारे दिमाग में भी जो चमकते खबर के टुकड़े की तरह बेकार चीज़ें जमा हैं वे भी यहाँ प्रतिबिम्बित हो जाती हैं।

प्रज्ञा का अनुरणन जिस तरह भावना प्रधान मन में प्रकट नहीं होता है, उसी तरह यथार्थ रूप में निर्माण करना चाह रहे जीवन का प्रतिबिम्ब भी नहीं होता। ये दो परम्पराओं के जुड़ने से निर्णीत हुई एक विशेष उपलब्धि है। और ऐसा करने के कारण कमलेश की कविताएँ दार्शनिक चेतना का आयतन प्राप्त करती है। इसी दार्शनिक-चेतना-बोध ने उनकी अपार कल्पना शक्ति को सांसारिक चिन्तन और चर्चा का रूप दिया है, जिनके आधार पर रची गई उनकी कविताओं का आयतन महाकाव्यात्मक हो उठा है।

टी.एस. एलियट ने कवि के कौशल को प्रमाणित करने के लिए जन प्रचलित शब्दों के व्यवहार की बातें कही थी। कमलेश की अनेकों कविताओं में देखा जा सकता है कि प्रचलित साधारण शब्दों का व्यवहार कर उन्होंने भावों के विन्यास को विचित्रता प्रदान की है।

आधुनिकता में वास्तविक सत्य की खोज ही कला होती है। असाधारण मनस्तात्विक परिचय से परस्पर विपरीतमुखी भावों का उन्मेष और जटिल चित्र के समन्वय स्थापन ने कमलेश की कविताओं को आकर्षक बना दिया है। उनकी कविताओं में नैतिकता की दार्शनिक बुनियाद भी स्पष्ट हो जाती है। परम्परागत गौरव के पुनर्जीवन की प्रक्रिया और रचनाशीलता ने कला के माध्यम से कमलेश ने रची हुई व्यापक सम्भावनाओं को काव्यपाठ में नए माध्यम से प्रकट किया है। उनकी कविताओं में अर्थबोध और रसबोध के समाहार ने एक जीवन भाष्य की मर्यादा को लाभान्वित किया है। इसीलिए कवि के अनजाने ही उनके भीतर छिपी हुई सामूहिक उपलब्धि के सहारे उन्होंने खोज की है कि केवल मनुष्य ही नहीं प्राकृतिक जगत में भी ऐसी कुछ सच्चाई है जो कमलेश की कविता के न होने से कभी भी उच्चारित नहीं हो पाती।