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"कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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ढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर में
 
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बियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,
 
बियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,
आँगनो के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।
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आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।
 
अजीब-सी होती है, चारों ओर
 
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वीरान-वीरान महक सुनसानों की
 
वीरान-वीरान महक सुनसानों की
 
पूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।
 
पूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।
 
वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है
 
वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है
'उन्नति' के क्षेत्रों मे, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों में
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'उन्नति' के क्षेत्रों में, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों में
 
मानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी की
 
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सोंधी गंध
 
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घुग्घू या सियार या
 
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भूत नहीं कहीं बन जाऊँ।
 
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उनको डर लगता है
 
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उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर
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जीवित क्यों रहती है?
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उसकी वह आत्मा पिशाच जब बन जाए
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तो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों पर
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इसीलिए,
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उनका और मेरा यह विरोध
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चिरंतन है, नित्य है, सनातन है।
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आती जब किरणें है
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तो सज्जन वे, वे लोग
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अचंभित होकर, उन दरारों को, छेदों को
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बंद कर देते हैं;
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इसीलिए कि वे किरणें
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उनके लेखे ही आज
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कम्यूनिज़्म है...गुंडागर्दी है...विरोध है,
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जिसमें छिपी है कहीं
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मेरी बदमाशी भी।
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मैं पुकारकर कहता हूँ –
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'सुनो, सुननेवालों।
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पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है
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उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय
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बरगद एक विकराल।
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उसके विद्रूप शत
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शाखा-व्यूहों निहित
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पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।
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तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर...
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वृक्ष के तने से चिपट
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बैठा है, खड़ा है कोई
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पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का,
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वह तो रखवाला है
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घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।
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और उस जंगल में, बरगद के महाभीम
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भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चांदनी
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सफलता की, भद्रता की,
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श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की
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खिलखिलाती चांदनी।
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अगर कहीं सचमुच तुम
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पहुँच ही वहाँ गए
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तो घुग्घू बन जाओगे।
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आदमी कभी भी फिर
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कहीं भी न मिलेगा तुम्हें।
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पशुओं के राज्य में
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जो पूनों की चांदनी है
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नहीं वह तुम्हारे लिए
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नहीं वह हमारे लिए।
  
 
क्रमशः...
 
क्रमशः...
 
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08:24, 18 जनवरी 2009 का अवतरण

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं –
'सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!
तरक़्क़ी के गोल-गोल
घुमावदार चक्करदार
ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की
चढ़ते ही जाने की
उन्नति के बारे में
तुम्हारी ही ज़हरीली
उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!'

कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों और
ढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर में
बियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,
आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।
अजीब-सी होती है, चारों ओर
वीरान-वीरान महक सुनसानों की
पूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।
वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है
'उन्नति' के क्षेत्रों में, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों में
मानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी की
सोंधी गंध
कहीं नहीं, कहीं नहीं
पूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं;
केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों में
निर्जन प्रसारों पर
सिर्फ़ एक आँख से
'सफलता' की आँख से
दुनिया को निहारती फैली है
पूनों की चांदनी।
सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों में
बैठे हुए घुग्घुओं व चमगादड़ों के हित
जंगल के सियारों और
घनी-घनी छायाओं में छिपे हुए
भूतों और प्रेतों तथा
पिचाशों और बेतालों के लिए –
मनुष्य के लिए नहीं – फैली यह
सफलता की, भद्रता की,
कीर्ति यश रेशम की पूनों की चांदनी।

मुझको डर लगता है,
मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे
घुग्घू या सियार या
भूत नहीं कहीं बन जाऊँ।
उनको डर लगता है
आशंका होती है
कि हम भी जब हुए भूत
घुग्घू या सियार बने
तो अभी तक यही व्यक्ति
ज़िंदा क्यों?
उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर
जीवित क्यों रहती है?
मरकर जब भूत बने
उसकी वह आत्मा पिशाच जब बन जाए
तो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों पर
सफलता के चंद्र की छाया में अधीर हो।
इसीलिए,
इसीलिए,
उनका और मेरा यह विरोध
चिरंतन है, नित्य है, सनातन है।
उनकी उस तथाकथित
जीवन-सफलता के
खपरैलों-छेदों से
खिड़की की दरारों से
आती जब किरणें है
तो सज्जन वे, वे लोग
अचंभित होकर, उन दरारों को, छेदों को
बंद कर देते हैं;
इसीलिए कि वे किरणें
उनके लेखे ही आज
कम्यूनिज़्म है...गुंडागर्दी है...विरोध है,
जिसमें छिपी है कहीं
मेरी बदमाशी भी।

मैं पुकारकर कहता हूँ –
'सुनो, सुननेवालों।
पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है
उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय
बरगद एक विकराल।
उसके विद्रूप शत
शाखा-व्यूहों निहित
पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।
तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर...
वृक्ष के तने से चिपट
बैठा है, खड़ा है कोई
पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का,
वह तो रखवाला है
घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।
और उस जंगल में, बरगद के महाभीम
भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चांदनी
सफलता की, भद्रता की,
श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की
खिलखिलाती चांदनी।
अगर कहीं सचमुच तुम
पहुँच ही वहाँ गए
तो घुग्घू बन जाओगे।
आदमी कभी भी फिर
कहीं भी न मिलेगा तुम्हें।
पशुओं के राज्य में
जो पूनों की चांदनी है
नहीं वह तुम्हारे लिए
नहीं वह हमारे लिए।

क्रमशः...