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23:57, 11 जून 2010 के समय का अवतरण
ख़ुदाई में
निकला है तो क्या
अब भी जीवित है
कालीबंगा शहर
जैसे जीवित है
आज भी अपने मन में
बचपन
अब भी
कराता है अहसास
अपनी आबादी का
आबादी की चहल-पहल का
हर घर में पड़ी
रोज़ाना काम आने वाली
उपयोगी चीज़ों का
चीज़ों पर
मानवी स्पर्श
स्पर्श के पीछे
मोह-मनुहार
सब कुछ जीवित हैं
कालीबंगा के थेहड़ में।
राजस्थानी से अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा