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"कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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कितनी दूरियों से कितनी बार
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कितनी डगमग नावों में बैठ कर
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मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
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ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !
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कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
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पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
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पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल ।
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कितनी बार मैं,
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धीर, आश्वस्त, अक्लांत –
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ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार.....
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और कितनी बार कितने जगमग जहाज
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मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
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किन पराये देशों की बेदर्द हवाओं में
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जहाँ नंगे अँधेरों को
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और भी उघाड़ता रहता है
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एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश –
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जिसमें कोई प्रभा-मंडल, नहीं बनते
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केवल चौधिंयाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
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सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ....
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कितनी बार मुझे
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खिन्न, विकल, संत्रस्त –
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कितनी बार !
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18:45, 10 जनवरी 2008 का अवतरण


कितनी नावों में कितनी बार
रचनाकार अज्ञेय
प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ
वर्ष 1983 (चौथा संस्करण)
भाषा हिन्दी
विषय
विधा
पृष्ठ 103
ISBN
विविध 1962-66 की कविताएँ
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।


  • कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय