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कितने टूटे कितनों का मन हार गया / ओमप्रकाश यती
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कितने टूटे , कितनों का मन हार गया
रोटी के आगे हर दर्शन हार गया
ढूँढ रहा है रद्दी में क़िस्मत अपनी
खेल-खिलौनों वाला बचपन हार गया
ये है जज़्बाती रिश्तों का देश, यहाँ
विरहन के आँसू से सावन हार गया
मन को ही सुंदर करने की कोशिश कर
अब तू रोज़ बदल कर दर्पन हार गया
ताक़त के सँग नेक इरादे भी रखना
वर्ना ऐसा क्या था रावन हार गया