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किया है शायरी का शौक़ फिर क्या यार शरमाना / ‘अना’ क़ासमी

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किया है शायरी का शौक़ फिर क्या यार शरमाना
सुनाना हो ग़ज़ल कोई तो मेरे घर चले आना

ये बस्ती मनचलों की है यहाँ मत बाज़ फरमाना
कहाँ लफ़ड़े में पड़ते हो चलो घर जाओ मौलाना

मैं थक कर सारा अपना बोझ आँखों से बहा देता
मिरे माथे को भी होता अगर इक फूल सा शाना

चलो अब इश्क़ का ये मशअला भी तय ही हो जाये
के शमअ़ कौन है हम में से उर है कौन परवाना

इसी रद्दो-क़दह<ref>असमंजस</ref>में उम्र इस मंजिल को पहुंची है
कभी इकरार कर लेना, कभी इंकार कर जाना

यही दो हादसे इस ज़िंदगी में सब से बढ़कर है
तिरा आँचल सरक पड़नरा, हमारा दिल धड़क जाना

शराबे इश्के-यज़दाँ<ref>ईश्वरीय प्रेम</ref>की ख़ुमारी देखते क्या हो
तुम्हारी वो जो मस्जिद है हमारा है वो मयख़ाना



शब्दार्थ
<references/>