भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किरणें / पवन चौहान

Kavita Kosh से
Arti Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:35, 2 जुलाई 2020 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मंद-मंद मुस्कुराती किरणें
मधुर मुस्कान बिखराती हुई
मेरे ऑंगन में आकर
उजाला करके घर में मेरे
आज सवेरे-सवेरे

रोज खिड़की से अंदर आती हैं
जाली से छनकर
षीशे को चीर
मुझे जगा जाती हैं
मैं उस दिन उदास हो जाता हूँ
जिस रोज वे नहीं आतीं
और एक माँ की तरह चूमकर
मुझे नहीं जगाती

मुझे किरणों की अठखेलियां लुभाती हैं
जब भी मेरे पास आती हैं
नया सवेरा लाती हैं
आज...
आँखों पर पड़ते ही
नींद मेरी खुलते ही
किरणें हँस पड़ीं
बोली- हैलो, क्या हाल है?
मैं अंगड़ाई लेकर हँस पड़ा
बोला- आइए, आपका स्वागत है!