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किस धज से ख़ुशबुओं का जनाज़ा उठा न पूछ / ज़ाहिद अबरोल

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किस धज से ख़ुशबुओं का जनाज़ः उठा, न पूछ
इस शहर-ए-बेलिहाज़ में क्या क्या हुआ, न पूछ

ज़ख़्मी क़लम से लिक्खे हैं मैं ने लहू के गीत
यह तर्जुमः हयात का कैसे किया, न पूछ

मेरे हसीन ख़्वाबों को सालिम निगल गए
मैं अज़दहों के शहर में कैसे रहा, न पूछ

आंखों में ज़िहन-ओ-दिल में कहां हूं ख़बर नहीं
पहली नज़र का इश्क़ हूं मेरा पता न पूछ

सदियों से रेंगते ही रहे हैं यहां के लोग
“ज़ाहिद” तू इन से मा‘नी-ए-लफ़्ज़-ए-अना न पूछ

शब्दार्थ
<references/>