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"कि तुम मुझे मिलीं / रामानन्द दोषी" के अवतरणों में अंतर

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मन होता है पारा
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कि तुम मुझे मिलीं
ऐसे देखा नहीं करो !
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मिला विहान को नया सृजन
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कि दीप को प्रकाश-रेख
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चाँद को नई किरन ।
  
जाने क्या से क्या कर डाला उलट-पुलट मौसम
 
कभी घाव ज़्यादा दुखता है और कभी मरहम
 
जहाँ-जहाँ ज़्यादा दुखता है
 
छूकर वहीं दुबारा
 
ऐसे देखा नहीं करो !
 
मन होता है पारा !
 
 
कौन बचाकर आँख सुबह की नींद उतार गया
 
बूढ़े सूरज को पीछे से सीटी मार गया
 
शक हम पर पहले से था
 
तुम करके और इशारा
 
ऐसे देखा नहीं करो !
 
मन होता है पारा !
 
 
होना-जाना क्या है, जैसे कल था, वैसा कल
 
मेरे सन्नाटे में बस ख़ामोशी की हलचल
 
अँधियारे की नेमप्लेट पर
 
लिखकर तुम उजियारा
 
ऐसे देखा नहीं करो !
 
मन होता है पारा !
 
 
ऐसे देखा नहीं करो
 
मन होता है पारा !!
 
 
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15:21, 13 अगस्त 2011 का अवतरण

कि तुम मुझे मिलीं
मिला विहान को नया सृजन
कि दीप को प्रकाश-रेख
चाँद को नई किरन ।