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कीलित / पीयूष दईया

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वह विद्यमान है। विधाता। उसके रास्ते से गुज़रो। पूरी तरह से भुला दिये गये।
रिक्त-स्थल हैं। वहां। भींचे हुए जिन्हें नुकीले कांच-सा खुबता है शून्य। लकीरें उसकी हथेली की।

क्या मार्ग हैं मकड़ीले?

निर्बिम्ब। पवन बहता है उसके रक्तसूखे दिल से, नेतिनातों के भी पदचिह्न छोड़े बिना। गोया बेरोशन बादलों में चोंच-दर-चोंच मारते एक कठफोड़वे के भेस में। सालहसाल। श्मशानी शऊर की वर्णमाला सीखते। संसारी को अपनी काया से पढ़ते। दहला दहला कि गाज गिरी , सिलसिलों के सीने में।
मुश्किलाये।
कौन जाने की खाक जानते। शून्य-बिन्दु लांघते मेटता, चिंचोड़ता कांटे की नोंक पर। हत्याग्रह से निर्मूल छूता है आसराग्रस्त जिसे जानता नहीं।
उसे जाननेवाला कोई नहीं।

धुकधुकी के फाहे सा था कभी पर अब बिना जड़ों के खिला अदृश्य फूलपोश है। किसी इलहामी इति का अनचिन्हा आपा चिन्हे। होनी लेखे में विन्यस्त वही सितम सहने। छीजता।

अपने उवाच से। सोखते सारे सियाह। बरतता। देशनाओं के केंकड़ी रचाव। मर्मफले। वक्फों में विजड़ित। भासते। गोदनाकार। एक चरितार्थ की बींधी बंटाये बिना।

पदचिह्न अपने में। वह बनाता है। सूत्रपर्यन्त तागों से टंके। चुप्पी से आती चीख के।
जिससे उस पार कुछ नहीं, इस पार कुछ नहीं। जिसे अपनाने को कुँए की छाया जैसे कुँए के बाहर नहीं जाती गोया बाद में कभी एक स्वप्न के छाया-चित्र में। रक्त-दाग़ न होना। रेत लेता है गला धारदार चाकू से।

अब कोई उपाय नहीं। न प्रकाश का, न निजात का।
चुप घर में।
मूमुर्षू कीलित रहा।