भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ अशआर / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:55, 11 जनवरी 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= फ़िराक़ गोरखपुरी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संग-ओ-आहन बेनियाज़-ए-ग़म नहीं
देख हर दीवार-ओ-दर से सिर न मार

निगह-ए-यास किसी मस्त की क्यों न आए याद
साक़िया आह वही रूह थी मयख़ाने की
 
ज़िन्दगी में दिल-ए-बर्बाद के हो ले बेचैन
फिर हवा-ए-चमन ए इश्क़ नहीं आने की

क्या है ये सिलसिला-ए-हस्ती ए पेचीदा-ए-दहर
एक उतरी हुई ज़ंजीर है दीवाने की

अब किसे हस्ती कहिए किसे नेस्ती कहिए
ज़िन्दगी मुझको क़सम दे गई मर जाने की

दामन-ए-अब्र में क्या बर्क़ का छुपना देखें
हमने देखी हैं अदाएँ तेरे शर्माने की

 फ़िराक साहब ने ये अशआर अपने एक इण्टरव्यू में पढ़े थे। उसी इण्टरव्यू से लेकर इन्हें यहाँ पेश कर रहे हैं ।