भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ दिन हो लें नदी ताल के / नईम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:04, 8 सितम्बर 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम }} आओ हम पतवार फेंककर कुछ दिन हो लें नदी ताल के नाव ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आओ हम पतवार फेंककर

कुछ दिन हो लें नदी ताल के


नाव किनारे के खजूर से बांध

बटोरें शंख-सीपियाँ

खुली हवा, पानी से सीखें

शर्मो-हया की नई रीतियाँ

बाचें प्रकृति पुरूष की भाषा

साथ-साथ पानी उछाल के


लिख डालें फिर नए सिरे से

रंगे हुए पन्नों को धोकर

निजी दायरों से बाहर हो

रागहीन रागों में खोकर

आमंत्रण स्वीकारें उठकर

धूप-छाँव-सी हरी डाल के


नमस्कार पक्के घाटॊं को

नमस्कार तट के वृक्षों को

पोंछ-पोंछ डालें जिस्मों से

चिपक गए नागर कक्षों को

हो न सके यदि लगातार

तब जी लें सुख हम अंतराल के