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कुछ मेरा दीवानापन था, कुछ दिलकश वह मंज़र था / डी .एम. मिश्र

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कुछ मेरा दीवानापन था , कुछ दिलकश वह मंज़र था
बाहर सावन बरस रहा था मैं कमरे के अन्दर था

मेरी इक ख़ता ने यारो , मेरा ऐसा हाल किया
उसके प्रश्नों के आगे मैं बेबस और निरूत्तर था

शांत नहीं होता था मेरे अन्दर का ग़ुस्सा लेकिन
मेरी यह मजबूरी थी मेरा दुश्मन ताक़तवर था

क़त्ल हुआ था बीच सड़क पर उँगली किधर उठाते पर
इधर कबीना मंत्री था तो उधर कमीना अफ़सर था

आग का जो दरिया देखा तो पहले डर से काँप उठा
मगर भंवर के पार गया तो आगे मानसरोवर था