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कुछ हाथ उठा के मांग न कुछ हाथ उठा के देख / सीमाब अकबराबादी
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कुछ हाथ उठाके मांग न कुछ हाथ उठाके देख।
फिर अख़्तियार ख़ातिरे-बेमुद्दआके देख॥
तज़हीको-इल्तफ़ात में<ref>हँसी उडाने और महरबानी में</ref> रहने दे इम्तयाज़<ref>अंतर</ref>
यूँ मुस्करा न देख के, हाँ मुसकरा के देख॥
तू हुस्न की नज़र को समझता है बेपनाह।
अपनी निगाह को भी कभी आज़मा के देख॥
परदे तमाम उठाके न मायूसे-जलवा हो।
उठ और अपने दिल की भी चिलमन उठा के देख॥
शब्दार्थ
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