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वह सखा आपके प्रेमी हैं,
देखत ही सनमान करें,
सब दूर व्यथा हो जावेगी,
कर कृपा तुम्हे धनवान करें |
बतियाँ पत्नि की सुनी ब्राह्मण,
भयभीत हुआ घबराय गया,
बोल व्यथा के सुन श्रवणा,
चुप चाप रहा बोला न गया |
कुछ देर बाद समझाने को,
बोला तू सच तो कहती है,
मगर हुआ क्या आज प्रिये,
हर रोज हरष से रहती है |
ये अश्रु बिंदु किसलिए आज,
दुखमयी बात क्यों बोल रही,
क्यों तुली कोटि पर माया की,
शुभ सुखद ज्ञान को तोल रही |
हैं कृष्ण सखा मेरे प्रेमी,
धन लाने को कैसे जाऊं,
निष्काम भक्ति की अब तक तो,
किस भांति स्वार्थ अब अपनाऊँ |
है दूर द्वारिका पास नहीं,
मैं वृद्ध हुआ अकुलाता हूँ,
मग चलने की सामर्थ्य नहीं,
इसलिए तुझे समझाता हूँ |
है दया देव की अपने पर,
इसलिए नहीं धनवान किया,
सात्विक भाव ही रहा सदा,
प्रिय दिल में कब अरमान किया |
केते ही प्रवीण फँसे माया के दल-दल में ,
ऐसा है विचित्र जाल भेद हूँ न पता है |
स्त्री और बाल बच्चे धाम धान संवार राखे ,
एते नष्ट होते कष्ट दिल में उठता है |
ऐसी यह माया, तासे बिगर जात काया,
लाखों भरमाया ऐसा झूंठ व्यर्थ नाता है |
कहता सुदामा प्रिय राम-कृष्ण राम भजो,
आनन्द ले सच्चा विप्र जो गोविन्द गुण गाता है |
अपना ना कोई प्रिया सुन री दे ध्यान चित्त,
संसार ये असार तामे झूठा ही नाता है |
स्वार्थ के मीत देख ना माने , कर प्रीत देख,
ऐसे सब मात-तात जात व्यर्थ भ्राता है |
सुत और दारा देख प्यारा से भी प्यारा देख,
सारा ही पसारा देख द्वन्द सा दिखता है |
कहता सुदामा तन धन अरु धाम झूठा ,
सच्चा तो वाही विप्र गोविन्द गुण गाता है |
बेर-बेर समझाव हूँ, आवत नहीं यकीन |
माया में फँस-फँस मरे , केते चतुर प्रवीण ||
है खान अवगुणों की माया,
हरि सुमरिण को भुलवाती है,
कहती है लाने को उसको,
घर बैठे व्याधि लगाती है |
माया वाले अंधे होकर,
नहीं सुमरिन जाप किया करते,
सत्कर्मों से रह दूर सदा,
मन माना पाप किया करते |
ऐ प्रिया इसी से बिता रहा,
यह समय प्रभु गुण गा-गा के,
अब हँसी बुढ़ापे में होगी,
माँगुगा द्रव्य वहाँ जाके |
सत्य विचार कहूँ सुनारी प्रिय यो जग झूठ मुझे हरसावे |
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