भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कृष्ण -सुदामा / शिवदीन राम जोशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
}}
 
}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
बंदहुं राम जो पूरण ब्रह्म है, वे ही त्रिलोकी के ईश कहावें  |
 +
श्री गुरु राह कृपामय हो, हम पै नजरे, गुण को नित गावें  ||
 +
शारद शेष महेश नमो, बलिहारी गणेश हमेश मनावें |
 +
बुद्धि प्रकाश करो घट भीतर, कृष्ण-सुदामा चरित्र बनावें ||
 +
राम राम जप बावरे साधन यही विवेक |
 +
                        इस साधन की ओट से तर गए भक्त अनेक ||
 +
परम सनेही राम प्रिय सुप्रिय गुरु महाराज |
 +
                        चरण परहूँ कर जोर कर वन्दहु  संत समाज ||
 +
प्रभु चरित्र में चित रचे जन्म-जन्म यही काम |
 +
                          भक्ति सदा सत्संग उर कृपा करहुं श्रीराम || 
 +
बंदहु संकर-सुत  हरखि मंगल मयी महेश |
 +
                          सकल सृष्टि पूजन करे तुमरी सदा गणेश ||
 +
नमन करत हूं शारदा सकल गुणन की खान |
 +
                नमहूँ सुकवि पुनि देव सब चरण कमल से ध्यान ||
 +
प्रभु चरित्र आनंद अति रुचिकर करहूं बखान |
 +
                        जाहि सुने चित देय  नर पावत पद निर्वाण ||
 +
लिखूं सुदामा की कथा यथा बुद्धि है मोर |
 +
करहूं कृपा शिवदीन पर नागर नन्दकिशोर ||
 
भक्त सुदामा ब्रह्मण थे,  
 
भक्त सुदामा ब्रह्मण थे,  
 
                   रहते थे देश विदर्भ नगर,
 
                   रहते थे देश विदर्भ नगर,

10:20, 30 अक्टूबर 2012 का अवतरण

बंदहुं राम जो पूरण ब्रह्म है, वे ही त्रिलोकी के ईश कहावें |
श्री गुरु राह कृपामय हो, हम पै नजरे, गुण को नित गावें ||
शारद शेष महेश नमो, बलिहारी गणेश हमेश मनावें |
बुद्धि प्रकाश करो घट भीतर, कृष्ण-सुदामा चरित्र बनावें ||
राम राम जप बावरे साधन यही विवेक |
                         इस साधन की ओट से तर गए भक्त अनेक ||
परम सनेही राम प्रिय सुप्रिय गुरु महाराज |
                        चरण परहूँ कर जोर कर वन्दहु संत समाज ||
प्रभु चरित्र में चित रचे जन्म-जन्म यही काम |
                           भक्ति सदा सत्संग उर कृपा करहुं श्रीराम ||
बंदहु संकर-सुत हरखि मंगल मयी महेश |
                           सकल सृष्टि पूजन करे तुमरी सदा गणेश ||
नमन करत हूं शारदा सकल गुणन की खान |
                नमहूँ सुकवि पुनि देव सब चरण कमल से ध्यान ||
प्रभु चरित्र आनंद अति रुचिकर करहूं बखान |
                         जाहि सुने चित देय नर पावत पद निर्वाण ||
लिखूं सुदामा की कथा यथा बुद्धि है मोर |
करहूं कृपा शिवदीन पर नागर नन्दकिशोर ||
भक्त सुदामा ब्रह्मण थे,
                   रहते थे देश विदर्भ नगर,
मीत प्रभु के सच्चे थे,
                 पत्नि भी पतिव्रता थी घर |
कुछ किस्सा उनका बयां करू,
                छांया दारिद्र की घर पर थी,
वो भगवत रूप परायण थे,
                 आशा उन्हीं पर निर्भर थी |
थी बुद्धिमती पतिव्रता वाम,
                गुणवान चतुर सुन्दर नारी,
पति इच्छा अनुकूल चले,
            थी श्रीपति को अतिशय प्यारी |
वो दुःख सुख सभी भोगती थी,
               पर बात न जिह्वा पर आती,
नित मीठे बैन बोलती थी,
            नहीं ध्यान बुरा दिल पर लाती |
इक रोज कहा कर जोर दोऊ,
             पति भूख से प्राण निकलते हैं,
छोटे-छोटे छौना मोरे,
            बिन अन जल के कर मलते हैं |
यह दशा देख अकुलाय रही,
                  नहीं बच्चों को भी रोटी है,
रह सकते नहीं प्राण इनके,
                अति कोमल है, वे छोटी हैं |
इसलिए कृपा कर प्राणनाथ,
             तुम नमन करो अविनाशी को,
मत करो देर, बस जाय कहो,
              सब हाल द्वारिका वासी को |
 वह सखा आपके प्रेमी हैं,
                   देखत ही सनमान करें,
सब दूर व्यथा हो जावेगी,
              कर कृपा तुम्हे धनवान करें |
बतियाँ पत्नि की सुनी ब्राह्मण,
                भयभीत हुआ घबराय गया,
बोल व्यथा के सुन श्रवणा,
               चुप चाप रहा बोला न गया |
कुछ देर बाद समझाने को,
                बोला तू सच तो कहती है,
मगर हुआ क्या आज प्रिये,
                 हर रोज हरष से रहती है |
ये अश्रु बिंदु किसलिए आज,
               दुखमयी बात क्यों बोल रही,
क्यों तुली कोटि पर माया की,
             शुभ सुखद ज्ञान को तोल रही |
हैं कृष्ण सखा मेरे प्रेमी,
                  धन लाने को कैसे जाऊं,
निष्काम भक्ति की अब तक तो,
            किस भांति स्वार्थ अब अपनाऊँ |
है दूर द्वारिका पास नहीं,
                  मैं वृद्ध हुआ अकुलाता हूँ,
मग चलने की सामर्थ्य नहीं,
                 इसलिए तुझे समझाता हूँ |
है दया देव की अपने पर,
               इसलिए नहीं धनवान किया,
सात्विक भाव ही रहा सदा,
           प्रिय दिल में कब अरमान किया |
सुदामा- द्वारपाल से
महाराज कृष्ण क्या करते है, है उनसे काम मेरा भाई।
हम बचपन के सखा मित्र, वह होते परम गुरू भाई।।
जाकर के उनसे खबर करो, यह हाल बता देना सारा।
मैं ब्राह्मण द्रविड़ देश का हूं, दिल ख्याल करा देना सारा।।

द्वारपाल- कृष्ण से
जा करके द्वारपाल ने जब श्रीकृष्ण चन्द्र से हाल कहा।
इक दुर्बल ब्राह्मण खड़ा खड़ा कहता है श्री गोपाल कहां।
चाहता है प्रभु से मिलने को प्रभु दर्शन का अनुरागी है।
है मस्त गृहस्थ में रह करके जानो सच्चा वैरागी है।।

वस्त्र फटे अरु दीन दशा, इक ब्राह्मण दीन पुकारत है।
द्वार खड्यो चहुं ओर लखे वह निर्मल नेक कहावत है।।
पास नहीं कछु भी धन दौलत बौलत ही मन भावत है।
कृष्ण रटे मुख से निशि-वासर नाम सुदामा बतावत है।।

आप सिवा न चहे अरु को, हम को वह दीखत है अति ज्ञानी।
हर्ष विषाद नहीं कछु व्यापत, कृष्ण सिवा कछु लाभ न हानी।।
है मति शु़द्ध पवित्र महा अति सार सुधामय बोलत बानी।
कौन पता किस ग्राम बसे अरु दीख रहा मति सात्विक प्रानी।।

        बहुत मुद्दतों बाद कृष्ण पाया,
              पाया प्रेमी का ठीक पता।
        उठ दौड़े, चौके, प्रभु बोले,
              है कहां सुदामा बता बता।
        सुनते ही नाम सुदामा का,
              अति उर में प्रेम उमंग आया।
        प्रेम प्रभु तो खुद ही थे,
               हद प्रेम जिन्होंने बरसाया।

हाल सुने करुणानिधि ने करुणेश करी करुणा अति भारी,
मीत सखा अरु प्रीत सखा सच आवत यों बहु याद तिहारी।
मीत बड़े सब जानत आप, बड़े हमसे सुधि लीन हमारी,
यों उठ दौरि न ढ़ील करी कित रंक सुदामा व कृष्ण मुरारी।
          उठ दौडे पैर पयादे ही,
                    झट पट से प्रभु बाहर आये।
          बोले शुभ दिवस आज का है,
                    हम प्रेमी के दर्शन पाये।
प्रीती व रीति न छानी छुपे झट प्रीतम कृष्ण सखा ढिग आये।
देखत ही उपज्यो सुख आनन्द वो कविता कवि कौन बनाये।
अंग व अंग मिलाकर नैनन, नैनन से प्रभु नीर बहाये।
नेह निबाहन हार प्रभो अति स्नेह सुधामय बोल सुनाये।

        प्रभु मिले गले से गला लगा
                   चरणोदक लीनो धो धोकर।
        बोले प्रेम भरी वाणी
                  पुछे हरि बतियां रो-रो कर।
        निज आसन पे बैठा करके
                 सब सामग्री कर में लीनी।
        चित प्रसन्नता से कृष्ण चन्द्र
                 विविध भांति पूजा कीनी।
        बोले न मिले अब तक न सखा
                 तुम रहे कहां सुध भूल गये।
        आनन्द से क्षेम कुशल पूछी
                प्रभु प्रेम हिंडोले झूल गये।
        रुक्मणि स्वयं सखियां मिलकर
                  सब प्रेम से पूजन करती थी।
        स्नान कराने को उनको
                  निज हाथों पानी भरती थी।
        चंवर मोरछल करते थे
                  सेवा से दिल न अघाते थे।
        निज प्रेमी के काम कृष्ण
                  सब खुद ही करना चाहते थे।