भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केले का पेड़ / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:56, 11 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=क्योंकि मैं उसे जा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
उधर से आये सेठ जी
इधर से संन्यासी
एक ने कही, एक ने मानी-
(दोनों ठहरे ज्ञानी)
दोनों ने पहचानी
सच्ची सीख, पुरानी :
दोनों के काम की,
दोनों की मनचीती-
जै सियाराम की!

सीख सच्ची, सनातन
सौटंच, सत्यानासी।
कि मानुस हो तो ऐसा...
जैसा केले का पेड़
जिस का सब कुछ काम आ जाए।
(मुख्यतया खाने के!)
फल खाओ, फूल खाओ,
धौद खाओ, मोचा खाओ;
डंठल खाओ, जड़ खाओ,
पत्ते-पत्ते का पत्तल परोसो
जिस पर पकवान सजाओ :
(यों पत्ते भी डाँगर तो खाएँगे-गो माता की जै हो, जै हो!)
यों, मानो बात तै हो :
इधर गये सेठ, उधर गये संन्यासी।
रह गया बिचारा भारतवासी।

ओ केले के पेड़, क्यों नहीं भगवान् ने तुझे रीढ़ दी
कि कभी तो तू अपने भी काम आता-
चाहे तुझे कोई न भी खाता-
न सेठ, न संन्यासी, न डाँगर-पशु-
चाहे तुझे बाँध कर तुझ पर न भी भँसाता
हर असमय मृत आशा-शिशु?
तू एक बार तन कर खड़ा तो होता
मेरे लुजलुज भारतवासी!

ग्वालियर, 6 सितम्बर, 1968