भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केहि समुझावौ / कबीर

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:31, 20 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कबीर |संग्रह= }} {{KKBhajan}} <poem> केहि समुझा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

केहि समुझावौ सब जग अन्धा॥ टेक॥

इक दु होयॅं उन्हैं समुझावौं
सबहि भुलाने पेटके धन्धा।
पानी घोड पवन असवरवा
ढरकि परै जस ओसक बुन्दा॥ १॥
गहिरी नदी अगम बहै धरवा
खेवन- हार के पडिगा फन्दा।
घर की वस्तु नजर नहि आवत
दियना बारिके ढूँढत अन्धा॥ २॥
लागी आगि सबै बन जरिगा
बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा।
कहै कबीर सुनो भाई साधो
जाय लिङ्गोटी झारि के बन्दा॥ ३॥