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कोई कैसे तुम्हे भूल जाए / विजय कुमार सप्पत्ति

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तुम...
किसी दूसरी ज़िन्दगी का एहसास हो...
कुछ पराये सपनों की खुशबू हो...
कोई पुरानी फरियाद हो...
किस से कहूँ की तुम मेरे हो...
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ...

तुम...
किसी किताब में रखा कोई सूखा फूल हो
किसी गीत में रुका हुआ कोई अंतरा हो
किसी सड़क पर ठहरा हुआ कोई मोड़ हो
किस से कहूँ की तुम मेरे हो...
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ...

तुम...
किसी अजनबी रिश्ते की आंच हो
किसी अनजानी धड़कन का नाम हो
किसी नदी में ठहरी हुई धारा हो
किस से कहूँ की तुम मेरे हो...
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ....

तुम...
किसी आंसू में रुखी हुई सिसकी हो
किसी खामोशी के जज्बात हो
किसी मोड़ पर छूटा हुआ हाथ हो
किस से कहूँ की तुम मेरे हो...
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ....

तुम... हां, तुम...
हां, मेरे अपने सपनो में तुम हो
हां, मेरी आखरी फरियाद तुम हो
हां, मेरी अपनी ज़िन्दगी का एहसास हो...
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ कि तुम मेरे हो...
हां, तुम मेरे हो...
हां, तुम मेरे हो...
हां, तुम मेरे हो...