भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें / अहमद कमाल 'परवाज़ी'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: '''कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखे…)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें  
+
'''
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें
+
कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें,
 +
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें,
  
 
ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हें अपने हमराह,
 
ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हें अपने हमराह,
आज फिर ढूंढ़ रही है वाही मंज़र आँखें
+
आज फिर ढूंढ़ रही है वाही मंज़र आँखें,
  
 
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे,
 
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे,
एक कतरे को तरसती हुई बंजर आँखें
+
एक कतरे को तरसती हुई बंजर आँखें,
  
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है
+
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है,
अपने हलकों से निकल आई है बाहर आँखें
+
अपने हलकों से निकल आई है बाहर आँखें,
  
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा
+
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा,
तेरी जानिब तो उठा कराती हैं अक्सर आँखें
+
तेरी जानिब तो उठा कराती हैं अक्सर आँखें,
  
लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी
+
लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी,
देख  लेते जो  'कमाल' उस  की  समंदर आँखें'''
+
देख  लेते जो  'कमाल' उस  की  समंदर आँखें,
 +
'''

20:57, 24 सितम्बर 2010 का अवतरण

कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें, आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें,

ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हें अपने हमराह, आज फिर ढूंढ़ रही है वाही मंज़र आँखें,

फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे, एक कतरे को तरसती हुई बंजर आँखें,

उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है, अपने हलकों से निकल आई है बाहर आँखें,

तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा, तेरी जानिब तो उठा कराती हैं अक्सर आँखें,

लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी, देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आँखें,