"कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें / अहमद कमाल 'परवाज़ी'" के अवतरणों में अंतर
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+ | <Poem>कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें, | ||
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें, | आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें, | ||
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लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी, | लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी, | ||
देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आँखें, | देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आँखें, | ||
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21:46, 27 सितम्बर 2010 का अवतरण
कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें,
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें,
ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हें अपने हमराह,
आज फिर ढूंढ़ रही है वाही मंज़र आँखें,
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे,
एक कतरे को तरसती हुई बंजर आँखें,
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है,
अपने हलकों से निकल आई है बाहर आँखें,
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा,
तेरी जानिब तो उठा कराती हैं अक्सर आँखें,
लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी,
देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आँखें,