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कोई शिकवा ही नहीं उसको मुकद्दर के लिये / आनंद कुमार द्विवेदी

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दो घड़ी भी न मयस्सर हुई बसर के लिए
ख्वाब लेकर के मैं आया था उम्र भर के लिए

कौन जाने कहाँ से राह दिखादे दे कोई
रोज बन-ठन के निकलता हूँ तेरे दर के लिए

तेरी महफ़िल को उजालों की दुआ देता हूँ
मैं ही माकूल नहीं हूँ तेरे शहर के लिए

रास्ते भर तेरी यादें ही काम आनी हैं
घर में माँ होती तो देती भी कुछ सफ़र के लिए

दिल को समझाना भी मुश्किल का सबब होता है
आज फिर जोर से धड़का है इक नज़र के लिए

सिर्फ अहसास नहीं हूँ, वजूद है मेरा
मैं बड़े काम का बंदा हूँ किसी घर के लिए

अजीब शख्स है ‘आनंद’ फकीरों की तरह
कोई शिकवा ही नहीं उसको मुकद्दर के लिए