भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोहबर मे कुचरै काग / नरेश कुमार विकल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:05, 22 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश कुमार विकल |संग्रह=अरिपन / नर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमरे घरक बहिकिरनी महतीन लगैयै।
अहाँ मानी ने मानी सौतीन लगैयै।

सींथ सेनूर आ साज सिंगार बिना
अयली घोघ आ मंहफा कहार बिना
ई तँ देखबा मे कनिया सँ भिन्न लगैयै।
अहाँ मानी ने मानी सौतीन लगैयै।

बिना अरिपन कें आँगन मे नाचै एना
भऽ कऽ रहतै जरूर किछु लागय तेना
हमर आँचरक फूल लेत छीन लगैयै।
अहाँ मानी ने मानी सौतीन लगैयै।

ई तऽ अबिते हमर सुख चैन लुटल
हमर सऽख-सेहन्ता पर बज्र खसल
हमर आगूक दिन दुर्दिन लगैयै।
अहाँ मानी ने मानी सौतीन लगैयै।

हमर कोहबर मे कहिया सँ कुचरैयै काग
दोष ओकरे किऐक ई तऽ हम्मर अभाग
काटब जिनगी हम ओकरे अधीन लगैयै।
अहाँ मानी ने मानी सौतीन लगैयै।