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क्या क़शिश हुस्ने-रोज़गार में है / शकील बदायूँनी

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क्या क़शिश<ref>आकर्षण</ref> हुस्ने-रोज़गार में<ref>ज़माने के सौन्दर्य में</ref> है
ग़म भी डूबा हुआ बहार में है

जब से खाए हैं उस नज़र के फ़रेब
मेरा दिल मेरे इख़्तियार में है

दिल की धड़कन ये दे रही है सदा<ref> आवाज़</ref>
जा कोई तेरे इन्तिज़ार में है

हो परीशाँ हिजाबे-ग़म से<ref>ग़म के पर्दे से</ref> न दिल
कारवां पर्दा-ए-ग़ुबार में<ref> धूल के पर्दे में</ref> है

नाला-ए-नीम शब को<ref>आधी रात</ref> को ग़ौर से सुन
एक नग़्मा भी इस पुकार में है

खोल दे बाबे-मयकदा<ref>मधुशाला का दरवाज़ा</ref> साक़ी
इक फ़रिश्ता भी इन्तिज़ार में है

महवे-गर्दि<ref>चक्कर काटने में लीन</ref> है कायनात<ref>ब्रह्माण्ड</ref> शकील
मेरी तक़दीर किस शुमार<ref>गणना</ref> में है

शब्दार्थ
<references/>