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"क्या तकल्लुफ करे ये कहने में / जॉन एलिया" के अवतरणों में अंतर

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10:07, 1 अगस्त 2010 का अवतरण

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क्या तकल्लुफ करे ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते है

है उसे दूर का सफर करके
हम सम्भाले नहीं सम्भलते है

है अजब फैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते है

हो रहा हूँ मैं किस तरहा बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते है

तुम बनो रंग, तुम बनो खुशुबू
हम तो अपने सुख्नन में ढ़लते है