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क्या मैं हारी? / उर्मिल सत्यभूषण

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खाना खाते चेहरों पर
मुखर थी तृप्ति की मुस्कान खिली थी
जो तुम्हारी थी
तुम हर चेहरे पर चिपके थे
जिसे मेरी बेटी, दामाद
नातिनें खिला रहीं थी
खाना।
तुम्हारे साथ खड़ी थी
हर जगह मैं
अनुचरी नहीं
तुम्हारी सहचरी
देखा मैंने-
देखा अपनी आँखों से
तुम्हारे चेहरे पर जीत के निशान
मुस्कान व्यंग्य की
चिढ़ाती हुई मुझे
खेलते रहे आँख मिचौनी
ही मुझसे जीवन औ
मृत्यु में
ज़िद में जान दे दी।
पर क्या मैं हारी?
बोलो, क्या मैं हारी?