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"क्रमश: तारक द्युतिहीन, लीन स्वर-मधुप-वृन्द / प्रथम खंड / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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क्या तुम प्राणों के क्षत-विक्षत ताने-बाने
 
क्या तुम प्राणों के क्षत-विक्षत ताने-बाने
 
मृदु स्मितियों से बुन दोगी?
 
मृदु स्मितियों से बुन दोगी?
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'अंतर की अकलुष स्नेह-वृत्ति कब हुई मृषा!
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तन मिलता उससे जिससे मन की बुझी तृषा
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सेवा-वंचित यह, आर्य! आपकी खिन्न दशा
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मैं दूँगी इन सूखे अंगों में सुरभि बसा
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जो असमय कुम्हलाये हैं
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दिन भर तप कर रवि-से लौटोगे, जभी गेह
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मैं संध्या-सी देहरी-दीप में भरे स्नेह
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अर्पित कर दूँगी यह नामांकित सुमन-देह
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मैं बरस, बिखर, जैसे पावस का प्रथम मेंह
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अंतर मधु से भर दूँगी'
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यों ही जीवन के बीते कितने संवत्सर
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चढ़ ज्वार प्रेम का चोटी तक, फिर गया उतर
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हिम-ताप-विकल पावस कितने दृग से झर-झर
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पथ के प्रवाह को मृदुल कठिनताओं से भर
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आ-आकर चले गये भी
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संध्या-वंदन को गये त्वरित मुनि छोड़ शयन
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पनघट पर अटपट पहुँच अहल्या चकित-नयन
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घट पर से बहते जल में असफल मीन-चयन
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बन गयी सहज जय-ध्वजा मयन की ज्योति-अयन
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मुक्तालक-जित घनमाला
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खोयी-खोयी-सी चिर निरर्थ-मन, यहाँ-वहाँ
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लौटी कुटीर में शेष त्रियामा निशा जहाँ
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'छल आज उषा का! मुनि कैसे चल दिए? कहाँ?'
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मलयज ने कानों से लगकर कुछ मौन कहा
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थर-थर काँपी वह बाला
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यह कौन कक्ष में पूनो शशि-सा मंदस्मित
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धकधक करता था हृदय, चेतना तमसावृत
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'ऋषि लौटे निशि-भ्रम जान कि प्रिय प्राणों में स्थित?
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कटंकित, अपरिचित नि:श्वासों से आकर्षित
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सर्वांग शिथिल, भय-कातर
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अवसन्न गौतमी, झलका ज्यों दव-सा समक्ष
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'यह इंद्रजाल रच रहा कौन गन्धर्व, यक्ष?
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फूले फेनिल जलनिधि-सा उठ-उठ मुकुर-वक्ष
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द्रुत गिरा, मृगी-सी चौंक, चकित सहसा अलक्ष
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सकुची सुन प्रेमभरे स्वर
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सुरपति यह जिसने पति-अनुकृति धर ली अनूप
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पाटल-विकीर्ण पथ नहीं, अतल चिर-अंध-कूप'
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कानों से लग बोले दृग-मधुकर, दंश-रूप
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आया कुसुमित शर ले अरूप वह बाल-भूप
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बह चली वायु अनुकूला
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सुगठित भुज-पट्ट, कपाट-वक्ष, हिम-गौर स्कंध
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तनु तरुण भानु-सा अरुण, स्रस्त-तूणीर-बंध
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दृढ जटा-मुकुट-शिर, कटि-तट मुनि-पट धरे, अंध
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प्रेमी के छल पर सलज, विहँस, उन्मद, सगंध
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उर-सुमन प्रिया का फूला
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पगध्वनि सहसा, भुजबंधन-से खुल गये द्वार
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पूजोपरान्त मुनि लौटे करते-से विचार
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'विभ्रम कैसा? मन आज विकल क्यों बार-बार?
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तप-स्खलन-हेतु क्या यह भी कोई नव प्रहार?
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कुछ नहीं समझ में आता
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देखा सहसा सम्मुख जो चिर-कल्पनातीत
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सुरपति कुटीर से कढ़े प्रात-विधु-से सभीत
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थी खड़ी अहल्या विनत, लिए मुख-कांति पीत
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स्मितमय भौंहों में अतनु छिपा था दुर्विनीत
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दुहरी जय पर इतराता
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प्रेयसी वही जो वय-स्नेहाकुल, सजल-प्राण
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मानस के तट तिर आयी उस दिन चिर-अजान
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रागिनी वही यह आज विवादी-स्वर-प्रधान
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पौरुष की हँसी उडाती-सी विपरीत-तान
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स्वर के पर खोल रही थी
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अपराधी-सा पत्नीत्व खडा नत-नयन मौन
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यौवन अल्हड़-सा कहता, 'इसमें पाप कौन!'
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हँसती सुन्दरता, 'अपना-अपना दृष्टिकोण'
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चेतना भीत भी पिये प्रीति की सुरा-शोण
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दीपक-सी डोल रही थी
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पल में विद्युत्-सा कौंध गया निशि का प्रसंग
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वह छद्म प्रात का ढंग, अचानक स्वप्न-भंग
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नख-शिख तनु में व्यापी जैसे ज्वाला-तरंग
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रक्ताभ नयन, आनन पर क्षण-क्षण चढ़ा रंग 
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अपमान, घृणा, पीड़ा का
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'मैं क्षीणकाय, नि:संबल, निर्बल, संन्यासी
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तुम वज्रायुध , स्वर्गाधिप, नंदन  के वासी
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इस पर भी बुझी न तृषा तुम्हारी सुरसा-सी
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कर गए मलिन चोरी से घर आ, मधुहासी--
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यह सुमन स्नेह-क्रीडा का
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धिक् सुरपति! जिस पर लुब्ध बने सुर-सदन-त्याग
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तुम आये इस निर्जन में वही सहस्र-भाग
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अंगों में होगी व्याप्त तुम्हारे ज्यों दवाग
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यह अयश-कालिमा ले सिर पर, चिर-मलिन काग
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तुम भटकोगे त्रिभुवन में!
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मुड़कर देखा सहसा पत्नी मुख-छवि विवर्ण
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नयनों की झर-झर व्यथा, मर्म-लज्जा अवर्ण्य
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पतझर की एकाकिनी लता ज्यों शेषपर्ण--
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जीवन-भिक्षा को, भय-कंपित आपाद-कर्ण 
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धूसर अंचल फैलाए
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तड़पा अंतर करुणा-ममता-आक्रोश-विकल
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मुनि रहे आत्म-कातरता में जलते, निष्फल
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फैला कपोल पर दोषी पलकों का काजल
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नारी की दुर्बलता का साक्षी-सा प्रतिपल
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कहता था अमित कथाएँ
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जीवन विषमय कर गयी हृदय की क्षणिक चूक
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मन काँप उठा सुख का सपना पा टूक-टूक
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पल में कैसा यह मन्त्र काम ने दिया फूँक
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लज्जा-भय-च्युत नारीत्व लुटा जैसे मधूक
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वंचक मधुपायी-कर से
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कुंचित भौंहों पर  झलकी चल ज्वाला-तरंग
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'स्वामी! अपराध क्षमा,' कहती-सी दृष्टि-संग
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चरणों पर पति के गिरी अहल्या शिथिल-अंग
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मुनिचीख उठ--'पाषाणी! यह क्या क्रूर व्यंग्य
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विष पी डर रही लहर से?
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सूना कुटीर, आश्रम में उड़ता पवन पीत
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पतझर-झंझागम-विटप काँपने लगे भीत
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पल में सूखी जैसे जीवन-धारा पुनीत
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रह गयी गौतमी शिला-सदृश सुखदुखातीत
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निज भाग्य-अंक ले फूटे
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02:51, 15 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


क्रमश: तारक द्युतिहीन, लीन स्वर-मधुप-वृन्द
नयनों की स्वप्निल कुमुद-कौमुदी हुई बंद
उल्लसित अहल्या यौवन-सुषमा ले अमंद
आकुल, अधीर-सी भुला नींद के द्विधा-द्वन्द
छाया-सी भू पर उतरी

वक्सर के पावन सिद्धाश्रम तक आ सहास
सहसा ठिठकी स्वर-मुग्ध मृगी-सी बद्धपाश
मुड़ चली सघन तरु-तले, सलज, सभ्रम, सलास
मधुमास छा गया वन-वन, पिक-रव-प्रियाभास
संकुचित भीत-सी सिहरी

  . . .

गौरांग, स्वस्थ, तप-पूत, ज्योति के सायक-से
पुरुषोत्तम सर्व-गुणोपम, विश्व-विधायक-से
वन मध्य खड़े थे गौतम ऋतुपति-नायक-से
कंपित लतिका के भाव-सुमन सुख-दायक-से
चरणों पर बिखर रहे थे
  
उज्जवल ललाट, घनश्याम लहरते केश-जाल
गैरिक पट, कटि-तट कसे, कंठ-धृत सुमन-माल
गंभीर, धीर, छवि-दीप्त, चेतना ऊर्ध्व-ज्वाल
प्रतिभा-प्रतिभासित, यशोदीप्त, कृश भी विशाल
क्षण-क्षण तप निखर रहे थे
. . .

सहसा नभ-ध्वनि सुन, 'सिद्धि तुम्हें दी स्रष्टा ने
मुनि! ग्रहण करो यह, व्यर्थ न मन शंका माने
बोले, 'स्वागत है, जीवन-सहचर अनजाने!
क्या तुम प्राणों के क्षत-विक्षत ताने-बाने
मृदु स्मितियों से बुन दोगी?
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