भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्रमश: तारक द्युतिहीन, लीन स्वर-मधुप-वृन्द / प्रथम खंड / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:51, 15 जुलाई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


क्रमश: तारक द्युतिहीन, लीन स्वर-मधुप-वृन्द
नयनों की स्वप्निल कुमुद-कौमुदी हुई बंद
उल्लसित अहल्या यौवन-सुषमा ले अमंद
आकुल, अधीर-सी भुला नींद के द्विधा-द्वन्द
छाया-सी भू पर उतरी

वक्सर के पावन सिद्धाश्रम तक आ सहास
सहसा ठिठकी स्वर-मुग्ध मृगी-सी बद्धपाश
मुड़ चली सघन तरु-तले, सलज, सभ्रम, सलास
मधुमास छा गया वन-वन, पिक-रव-प्रियाभास
संकुचित भीत-सी सिहरी

  . . .

गौरांग, स्वस्थ, तप-पूत, ज्योति के सायक-से
पुरुषोत्तम सर्व-गुणोपम, विश्व-विधायक-से
वन मध्य खड़े थे गौतम ऋतुपति-नायक-से
कंपित लतिका के भाव-सुमन सुख-दायक-से
चरणों पर बिखर रहे थे
  
उज्जवल ललाट, घनश्याम लहरते केश-जाल
गैरिक पट, कटि-तट कसे, कंठ-धृत सुमन-माल
गंभीर, धीर, छवि-दीप्त, चेतना ऊर्ध्व-ज्वाल
प्रतिभा-प्रतिभासित, यशोदीप्त, कृश भी विशाल
क्षण-क्षण तप निखर रहे थे
. . .

सहसा नभ-ध्वनि सुन, 'सिद्धि तुम्हें दी स्रष्टा ने
मुनि! ग्रहण करो यह, व्यर्थ न मन शंका माने
बोले, 'स्वागत है, जीवन-सहचर अनजाने!
क्या तुम प्राणों के क्षत-विक्षत ताने-बाने
मृदु स्मितियों से बुन दोगी?
 . .