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{{KKRachna
|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
|संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त दुष्यंत कुमार
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal‎}}‎<poem>
खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
 
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही
 
कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
 
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही
 
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
 
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही
 
मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा
 
या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही
 
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
 
इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही
 
कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे
 
कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही
 
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
 
रो—रो के बात कहने की आदत नहीं रही
 
सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी
 
गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही
</poem>
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