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खण्ड-8 / सवा लाख की बाँसुरी / दीनानाथ सुमित्र

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141
हिंदी, बिंदी हिन्द की, मान इसे अभिमान।
कर इसकी सेवा सदा, कर मत लहूलुहान।।

142
धनिया ने करवा दिया, होरी का गोदान।
त्यागपत्र की नायिका, कर ले निज-निर्माण।।

143
सब को यह मालूम है, जीवन के दिन चार।
नफ़रत से रह दूर बस, करते जाओ प्यार।।

144
गीतकार शैलेन्द्र से, मिलन रहेगा याद।
गीतों की खेती हुई, उनसे ही आबाद।।

145
मैया अब भी याद हैं, तेरे भूरे नैन।
रोता मुझको देखकर, होते थे बेचैन।।

146
माँ का गोरा रंग था, मेरा गोरा रंग।
इसी रंग को मानता, हूँ मैया का संग।।

147
गिरता पड़ता रोज हूँ, हुआ न बाँका बाल।
माँ का आशीर्वाद ही, लेता मुझे सँभाल।।

148
माँ गंगा की लाडली, कंठ गीत की धार।
माँ की लोरी से मिला, गायन का उपहार।।

149
श्रद्धा मेरी है बड़ी, निम्न भले हो काव्य।
लिखने से मैं क्यों रुकूँ, लिखना है संभाव्य।।

150
आशिक़ हूँ मैं आपका, रखिए दिल के पास।
नैना मेरे हों नहीं, देखे बिना उदास।।

151
माँ की ममता जो मिली, मिला सकल संसार।
माँ मेरी है सब जगह, माँ सबमें साकार।।

152
गाँव-नगर के पास था, डँसा नगर का व्याल।
गाँव, गाँव में मर रहा, व्यथित अस्थि कंकाल।।

153
प्रीत करो भय हीन हो, जैसेे सरिता नीर।
कल-कल बहती सिंधु तक, बहती है बेपीर।।

154
नगर अगर दुख दे तुम्हें, आना अपने गाँव।
बरगद, पीपल, नीम सब, देंगे शीतल छाँव।।

155
कास-सुमन उज्ज्वल सखे, झूमे नदी कछार।
भूल न जाना यह तुम्हें, दिया सुनहरा प्यार।।

156
पूस महीने ने दिया, बथुआ वाला साग।
फागुन लाया विहँस के, झोली भर के फाग।।

157
गाँव आज है शहर-सा, रिश्ते हैं कमजोर।
संत यहाँ बसते नहीं, हैं असंत हर ओर।।

158
सब के दिल में प्यार हो, दिल में रहे बहार।
जंग कहीं भी हो नहीं, गल जाएँ हथियार।।

159
प्यार नहीं बाज़ार में, प्यार नहीं सामान।
उसको मानस क्यों कहूँ, जो इससे अंजान।।

160
प्यार नहीं जिसको मिला, जिया सदा बेहाल।
उससे ज़्यादा विश्व में, कौन बड़ा कंगाल।।