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"ख़त्म उनपर हैं सभी शोखियाँ ज़माने की / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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ख़त्म उनपर हैं सभी शोखियाँ ज़माने की
 
जिनको सूझी है सलीबों पे चढ़के गाने की
 
 
है समझने की नहीं और न समझाने की
 
आँखों-आँखों वो अदा तेरे लिपट जाने की
 
 
है वही शोख हँसी मुँह पे शमा के अब भी
 
फर्क आया न कोई मौत से परवाने की
 
 
कौन होगा तेरी गलियों में हम-सा ख़ानाख़राब
 
उम्र भर याद न आयी जिसे घर जाने की
 
 
और दो-चार घड़ी खेल उन आँखों में, गुलाब!
 
फिर मिलेगी न तुझे रात परीखाने की
 
<poem>
 

08:25, 2 जुलाई 2011 के समय का अवतरण