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ख़ुदकशी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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उस आख़िरी लम्हे का मुंतज़िर हूँ मैं

जिस घड़ी सूख-सी जायेगी

सफ़ेद साँस की आख़िरी बूँद भी

और रूह किसी परिंदे की मानिंद

जा बैठेगी दूसरे दरख़्त पर

एक टूटे हुए शाख़ की तरह

कुछ दिनों में गल जायेगा जिस्म

या किसी ग़रीब के घर

चुल्हे में चमकती चिंगारी बनकर

तैयार करेगा एक ऐसी रोटी

जिसका एक टुकड़ा खाकर

बूढ़ा बाप खेत जायेगा चाँद गुमते ही

बदन पर कड़ी धूप मलने को

कहते हैं – ‘धूप से विटामिन डी मिलती है’ ।


रोटी का दूसरा टुकड़ा

माँ ख़ुद नहीं टोंग कर

अपने बेटे के पेट की शोभा बढ़ायेगी

क्योंकि उसे स्कूल जाना है

क्योंकि उसे स्कूल का मध्यान भोजन पसंद नहीं

क्योंकि उसे खिचड़ी के साथ मेंढ़क,

गिरगिट या कंकड़ खाना अच्छा नहीं लगता ।


एक उम्र से चुपचाप लड़की

टुकूर-टुकूर देखती है रोटी का टुकड़ा

और ये सोच कर नहीं छूती है उसे

क्योंकि वह एक लड़की है

क्योंकि उसका भाई स्कूल से लौटते ही खाना मांगेगा

क्योंकि उसके बाप को,

खेत से लौट कर खाने की आदत है

क्योंकि वह सोचती है -

उसके दिल की तरह भट्ठी फिर सुलगेगी ।


रात, बिस्तर में जाने से पहले

दरार पड़े होंठों की प्यास,

पेट की भूख पर हावी हो जाती है

उतर-सी आती हैं दबे पाँव

सैकड़ों सुइयाँ नसों के भीतर

जिसकी चुभन,

न सिर्फ़ लड़की की माँ

बल्कि बाप को भी महसूस होती है

सिर्फ़ अपने दर्द की तस्सली के लिए

दोनों कहते हैं – ‘दुल्हन ही दहेज है’ ।


कुछ महीनों तक

यूँ ही चलता है सिलसिला

एक रोज़ अंदर के पन्नों में

चिल्लाती है अख़बार की सुर्ख़ी

‘कुएँ में कूदकर लड़की ने की ख़ुदकुशी’

अख़बार का एक कोना

दिखाई देता है लहू में तर

फटे हुए कपड़े, नुची हुई चमड़ी

दबी ज़बान कहती है – ‘रेप हुआ था’ ।


पुलिस नहीं आयेगी दोबारा

इतना तो यक़ीन था सबको

क्योंकि पैसों ने पाँव रोक रखे हैं

क्योंकि लड़की ग़रीब की बेटी है

क्योंकि इससे टीआरपी में कोई फ़र्क़ नहीं आयेगा

मुमकिन है – हादसा फिर हो, होगा

कहते हैं – ‘इतिहास ख़ुद को दोहराता है’।