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ख़ुश्बू भरे वो बाग़ गुलाबों के खो गए.. / श्रद्धा जैन

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जितने महल बनाए थे ख़्वाबों के, खो गए
ख़ुश्बू भरे वो बाग़ गुलाबों के खो गए

हर बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गई
क़िस्से वो इंक़लाबी, किताबों के खो गए

तारीख़ मुफ़लिसी ने लिखी है कुछ इस तरह
मिलते नहीं निशान नवाबों के, खो गए

उलझन में घिर गया है, हर इक शख़्स शहर का
अब सिलसिले भी शोख़ जवाबों के खो गए

बच्चे जो खिलखिला के हँसे तो मुझे लगा
सुलगे हुए जो दिन थे अज़ाबों के, खो गए