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ख़्वाब देखें थे घर में क्या-क्या कुछ / जतिन्दर परवाज़

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ख़्वाब देखें थे घर में क्या-क्या कुछ
मुश्किलें हैं सफर में क्या-क्या कुछ

फूल से जिस्म चांद से चेहरे
तैरता है नज़र में क्या-क्या कुछ

तेरी यादें भी अहल-ए-दुनिया भी
हम ने रक्खा है सर में क्या-क्या कुछ

ढंढ़ते हैं तो कुछ नहीं मिलता
था हमारे भी घर में क्या-क्या कुछ

शाम तक तो नगर सलामत था
हो गया रात भर में क्या-क्या कुछ

हम से पूछो न ज़िन्दगी ‘परवाज़’
था हमारी भी नज़र में क्या-क्या कुछ