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ख़्वाब सब के महल बँगले हो गये / डी. एम. मिश्र

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ख़्वाब सब के महल बँगले हो गये
ज़िंदगी के बिंब धुँघले हो गये।

दृष्टि सोने और चाँदी की जहाँ
भावना के मोल पहले हो गये।

उस जगह से मिट गयीं अनुभूतियाँ
जिस जगह के चाम उजले हो गये।

बादलों को जो चले थे सोखने
पोखरों की भाँति छिछले हो गये।

कौन पहचानेगा मुझको गाँव में
वर्षों मुझको घर से निकले हो गये।